दीवारें
खड़ी होती है ,
टूटती रहती हैं,
चाहे जितनी ऊँची क्यों न हो ?
जो बनी है वो नष्ट होगी ।
नाशवान तो मानव भी है ,
फिर भी
मुट्ठी जैसे दिल में
अगर खिंच जाती है दीवार तो
उस दिल से भी छोटी दीवार
बिना ईंट गारे के
अभेद्य, अटूट और अक्षुण्य होती है ।
तब दिल, दिमाग और जिस्म भी
शिला हो जाते है ।
किसी कर्म के अभिशाप से ,
यही कटु यथार्थ समझो ।
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