दर्द और डर
दोनों में नींद नहीं आती है,
दर्द तो इंसान का अपना ही होता है
और भय
वह तो न जा रहा है
बहुशंका और कुशंकाएँ
उपज है।
रात की खामोशियों के बीच
कुत्तों के सामूहिक रुदन से
मन काँप ही तो जाता है।
और भयभीत मन
महामृत्युंजय के मानसिक जप में
आँखें मूँद कंर जुट जाती है।
फिर से I
ट्रैक पर सोते मजदूर
जो सोते हुए शव हो गये।
अपना दर्द भूल जाना
अहसास उनके परिजनों का
बन कर आँसू दोनों ओर लुढ़क जाते हैं।
याद आती है अपनी बेटी की तस्वीर
पीपीई किट में
किसी गोताखोर की तरह
और फिर से बंद करके -
"हे ईश्वर सबकी रक्षा करो।"
फिर से आश्वस्त है कि
उन्होंने कवच पहना सबको दिया
आँखें मूँद कर सोचती है
अवतार में लाखों की मौत
किसी न किसी बहने से
ये त्राटक
क्या प्रलयंकर का कोप है?
यही प्रलय है।
चेत गए तो जियेंगे
नहीं तो मृत्यु की धारा को धारण करने के लिए
कोई शिव तो बैठा होगा कहीं
आइये आह्वान करें -
ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे ……।
भय को हराकर ही ऐसी स्थिति से बाहर आया जा सकता है
जवाब देंहटाएंआभार।
हटाएंईश्वर का मार्ग हर भय से मुक्ति दिलाता है ...
जवाब देंहटाएंवही सर्व शक्तिमान है ...
आभार।
हटाएंसच, चेत गए तो ही जिएंगे। सुंदर सृजन। साधुवाद
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 09 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआप स्वास्थ्य लाभ करें...कामनाएं हमारी भी।
जवाब देंहटाएंहम लोग दुर्घटना के बाद व्यवस्थाओं और व्यक्तियों में दोष ढूँढ़ते हैं...कुछ दिन बाद भूल जाते हैं जैसे रावण दहन के समय रेलगाड़ी से दुर्घटनाग्रस्त जन समूह का आर्तनाद। ये बात उस समय भी उठी थी कि रेलपथ आमजन के लिए प्रतिबंधित होता है। बात इतनी सी है...इस नियम को कोई भी महत्व नहीं देता। देना शुरु करें तो ऐसी घटनाओ की पुनरावृृृत्ति न हो।
वर्तमान परिवेश में उपयोगी रचना
जवाब देंहटाएंएक अद्भुत रचना
जवाब देंहटाएंबेहद भावपूर्ण रचना.
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