हाँ मै हूँ बबूल !
जिसे न कोई रोपे जग मेंं,
खुद ब खुद उगता बढ़ता हूँ
नहीं धूप वर्षा की जरूरत
रहते जिसमें शूल ही शूल,
्हाँ मैं शूल हूँ बबूल !
नहीं चाहिए खाद औ पानी
फिर भी करके मैं मनमानी
जहाँ तहाँ उग ही आता हूँ
चाहे धरती हो प्रतिकूल
हाँँ मैं हूँ बबूल !
रक्षक भी बन सकता हूँ
खेतों पर मैं बन कर बाड़
सीमा पर पहले ही रोकूँ
दुश्मन को बनकर त्रिशूल
हाँँ मैं हूँ बबूल !
आयुर्वेद ने समझा मुझको
ऋषियों ने देकर सम्मान
गोंंद , छाल या फल हों
औषधियों में किया कबूल
हाँँ मैं हूँ बबूल !
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 7.5.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3694 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह दीदी , फूल पर तो बहुत सारी कवितायेँ पढ़ी सुनी देखी काँटों की खूबसूरती सब नहीं देख लिख सकते हैं | बहुत ही अलग और बहुत ही खूबसूरत पंक्तियाँ | बबूल का तो कहना ही क्या
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