सोमवार, 20 जुलाई 2020

दर्द हवेली का !

विरासतें थक जातीं हैं, पीढ़ियों तक चलते चलते,
और फिर ढह जाती हैं, अकेले में पलते पलते ।

हर कोना हवेली का अब भरता है  सिसकियाँ ,
चिराग भी बुझ चुके है , अंधेरों में जलते जलते ।

आत्मा इस हवेली की , भटक रही है बदहवास ,
जाना उसे भी पड़ेगा , अब उम्र के ढलते ढलते ।

उम्र के इस पड़ाव अब , किस तरह बढ़ेंगी साँसें ,
पीढ़ी बदल चुकी हैं ,  हम पुराने हुए गलते गलते ।

 वो बाग महकता था जो फल और फूलों से ,
ठूँठ बने दरख़्त कल के , चुक गये हैं फलते फलते ।

वो वारिस जिनकी किलकारियां , गूँजी थीं मेरे आँगन में ,
छोड़ कर चल दिए हमें , बेगाने  बनकर छलते छलते ।

7 टिप्‍पणियां:

  1. भावपूर्ण छंद ... हर छंद जीवन की सच्चाई बयान करता है ...

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