जिंदगी एक सफर है
जो जीवन भर
सतत
चलता ही रहता है ,
और
ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता है।
उसमें कितने सफर
होते हैं ?
कितने पड़ाव आते हैं ?
और कितने हमसफर मिलते हैं ?
कहीं ये गलत तो नहीं
हमसफर तो शायद एक ही होता है।
फिर क्या कहेंगे ?
सहयात्री - हमसफर
एक ही तो है
लेकिन
हमसफर जिंदगी भर साथ सफर करता है
और सहयात्री अपनी मंजिल के आते ही
चल देता है हाथ हिला कर।
अंतर क्या है ?
सिर्फ शब्दों का
और अर्थ बदल गए।
एक के जाने पर
सफर रुकता नहीं है
और एक के जाने से
सफर ही नहीं
जिंदगी भी कुछ दिनों के
थम सी जाती है।
अहसास को जीने की आदत
होने तक चारों और
वह हमसफर ही तो होता है।
सांस के एक रुक जाने से
जीवन भर का साथ
ऐसे मिट जाता है
जैसे
कभी साथ रहा ही न हो।
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