जीवन में बिखरे धूप के टुकड़े और बादल कि छाँव के तले खुली और बंद आँखों से बहुत कुछ देखा , अंतर के पटल पर कुछ अंकित हो गया और फिर वही शब्दों में ढल कर कागज़ के पन्नों पर. हर शब्द भोगे हुए यथार्थ कीकहानी का अंश है फिर वह अपना , उनका और सबका ही यथार्थ एक कविता में रच बस गया.
सोमवार, 10 अक्टूबर 2022
गमज़दा घर !
रविवार, 9 अक्टूबर 2022
एलेक्सा!
सोमवार, 29 अगस्त 2022
हवेली बनाम पीढी!
लोग कहते हैं ,
हवेलियां मजबूत होती हैं ,
एक पीढ़ी उसको बनाती है
तो
दूसरी पीढ़ी उसको सजाती है ।
ये मैंने भी देखा है ,
साथ ही देखा है -
बड़ी बड़ी हवेलियों को दरकते हुए ,
भले ही ईंटें न बिखरें ,
छतें न दरकेंं
फिर भी दीवारों में दरारें आ ही जाती हैं।
बनने लगती है,
नयी दीवारें आँगन में,
बाँटने को पीढ़ियों के अंतर को।
कोई भी हवेली अखण्ड नहीं होती है,
वो बरगद या पीपल नहीं होती,
जो शाख-दर-शाख चलती ही रहे।
बीज भले दूर दूर तक जाकर उग आयें
हवेलियाँ कहीं नहीं जाती है।
एक दिन ढह जाती हैं
और खण्डहर बन सदियों तक भले पड़ी रहें।
इतिहास बन गए!
गुजरे साल के वो भयावह दिन ,
किस तरह एक तारीख़ बन गए।
समेट कर जो कुछ रखा था यादों में ,
कुछ ज़ख्म कुछ फाहे बन गए।
नहीं जानते कौन कब बेगाने हुए ,
कौन दिल से जुड़े और साये बन गए।
जिया था जीवन साथ जिनके उम्र भर ,
गर्दिश में देखा तो अनजाने बन गए।
रिश्तों की सिलन!
रिश्तों में सिलन
जन्म से होती है,
तभी तो
सब मिलकर बनता है
परिवार परिधान।
सबका अलग अलग अस्तित्व
फिर भी जुड़े होते है ।
सारे अवयव
जुड़े होते है सिर्फ माँ से,
और माँ संतुलन बनाये
सबको धारे रहती है।
समय के साथ
आकार बढ़ता है फिर
अपने ही सामने
जब टूटने लगती है वह सिलन,
फिर नहीं सिल पाती है
सिल भी ले तो
नहीं हो पाते हैं
सब एक साथ , एक आकार में।
खुद सुई तागा लिए
कभी इसको सुधारती है
और कभी उसको
लेकिन खुद दोषी बना दी जाती है
और एक किनारे बैठा दी जाती है।
कहीं कॉलर,
कहीं आस्तीन,
कहीं बाँधने वाला फीता,
शेष बचा भाग उड़ जाता है हवा में,
वो देखती रहती है बेबसी से,
उस सिलन की सूत्रधार ।
शुक्रवार, 19 अगस्त 2022
सावन!
सावन लिखा
तो
मायका याद आया,
इस घर से वहाँ जाना,
नीम पर पड़ा झूला,
सारी सहेलियों की टोली,
हफ्तों पहले से सपने
तैरने लगते थे।
कितनी तैयारी होती थी?
छोटी बहनों के लिए
कुछ लेकर तो जाना है,
भाई की पसंद की राखी
पसंद की मिठाई,
भाभी की चूड़ियाँ, कंगन
सब इकट्ठा करके चलते थे।
आज
वहाँ न माँ-पापा रहे
न बहनें - सब अपने घर
अब नहीं मिल पाते वर्षों,
और भाई भी रूठ गये,
फिर कैसा सावन, राखी, चूड़ियाँ, कंगन
सब बेमानी हो गये।
खो गये सब मायने
और मायका भी तो बचा कहाँ?
न माँ, न पापा और न भाई हों जहाँ।
ऐसा भी घर !
उस मकान से
कभी आतीं नहीं
ऐसी आवाजें
जिनमें खुशियों की हो खनखनाहट।
खामोश दर,
खामोश दीवारें,
बंद बंद खिड़कियाँ,
ओस से तर हुई छतें
शायद रोई हैं रात भर ।
कोई इंसान भी नहीं
हँसता यहाँ,
मुस्कानें रख दी हैं गिरवी।
उनके यहाँ
खुशियाँ ने भी
न आने की कसम खाई है।
शायद इसीलिए
हर तरफ मायूसी छाई है।
गुरुवार, 4 अगस्त 2022
माँ : एक भाव!
शनिवार, 25 जून 2022
कितना बदल गया संसार !
कितना बदल गया संसार !
दर वही,
द्वार वही,
बाड़ी भी वही
बस कुछ दीवारें बढ़ गईं।
कुछ दरवाजे,
कुछ खिड़कियाँ,
पत्थरों औ' रोशनी की
चमक बस कुछ और बढ़ गई।
आँगन वही,
चेहरे मोहरे वही,
जमीन भी वही
बस धन की दूरियाँ बढ़ गईं।
जीवन वही,
रिश्ते भी वही,
रगों में बहता खून वही,
बस ज़िन्दगी में तल्खियाँ बढ़ गईं।
ये साठ साला औरतें!
ये साठ साला औरतें !
ये कल की साठ साला औरतें,
घर तक ही सीमित रहीं,
बहुत हुआ तो
मंदिर, कीर्तन और जगराते में,
पहन कर हल्के रंग की साड़ी,
चली जाती थीं।
चटक-मटक अब कहाँ शोभा देगा उन्हें
और कभी कभी तो उनकी
आने-जाने की कुछ साड़ियाँ वर्षों तक
चलती रहती थी,
कहीं गईं तो पहन लिया
और
आकर उतार कर बक्से में धर दिया।
ये कल की साठ साला औरतें -
हाथ पकड़ कर पोते-पोतियों के
पड़ोस में जाकर बैठ आती,
कुछ अपने मन की कह कर,
कुछ उनके मन की सुन आती।
वही तो हमराज होती थीं।
पति के साथ बैठकर बतियाने का रिवाज भी ही कम था,
जरूरत पर बतिया लो,
पैसे माँग लो या
कहीं बुलावे में जाना है, की सूचना दे दो।
ये थी कल की साठ साला औरतें।
और
आज की साठ साला औरतें-
लगती ही नहीं है कि साठ साला हैं,
आज तो जिंदगी शुरू ही अब होती है,
रिटायरमेंट तक दौड़ते भागते,
घर बनाते, बच्चों के भविष्य को सजाते निकल जाता है।
कब सजने का सोच पाईं,
अब किटी पार्टी का समय आया है,
अब सखी समूह में घूमने का समय आया है,
नहीं बैठती है, अब बच्चों को लेकर पार्क में,
खुद योग में डूब कर स्वस्थ रहना सीख जाती हैं।
तिरस्कार नयी पीढ़ी का क्यों सहें?
अपने को अपनी उम्र में ढाल लेती हैं।
अपने गुणों को डाल कर नेट पर समय बिताती हैं,
अपने गुणों से ही पहचान बनाती हैं।
जिंदगी जिओ जब तक,
जिंदादिली से जिओ ,
जो संचित अनुभव है, बाँटो और खर्च करो,
पुरानी तोड़कर अवधारणा फैल रहीं है दुनिया में।
ये साठ साला औरतें लिख रहीं इतिहास नया।
ये आज की साठ साला औरतें,
युवाओं से भी युवा है।
जीना हमें भी आता है,
कहकर मुँह चिढ़ा रहीं हैं नयी पीढ़ी को,
वह पहनतीं हैं जो सुख देता है,
सुर्ख़ रंगों में सजे परिधान संजोती हैं,
लेकिन अब भी लोगों की आँखों में किरकिरी की तरह
खटक जाती है इनकी जिंदादिली
क्योंकि
आज की साठ साला औरतें
सारी बेड़ियाँ तोड़ना चाहती है ।
बुधवार, 8 जून 2022
कुछ खो गया!
कुछ खो गया!
इस सफर में
कुछ खो गया, या छूट गया,
हर तरफ उँगली उठी -
'दोषी तुम हो,
ध्यान कहाँ रहता है?
कहाँ खोई रहती हो?
गाढ़ी कमाई का पैसा है।'
आँखें बंद किए,
मींच कर ओंठ,
आँसू घुटकती गले के नीचे,
रसोई में खड़ी रोटी सेंक रही थी।
पी गई, सब आरोप, कटाक्ष
जो छोटे और बड़ों ने दिए थे।
एक सवाल उठा जेहन में -
कभी सोचा है मैंने अपना क्या क्या खोया है?
अपनी बेबाक आवाज़ खोई है,
अन्याय के खिलाफ उठती हुई हुँकार खोई है,
वे शब्द खोए,
जिन पर पहरा लगा हुआ है,
अपना सच कहने का हौसला खोया है,
मेरा सच आग के हवाले हो गया,
सच का हुआ पोस्टमार्टम तो
कलम, कागज,शब्द खो गये,
तब भी नहीं पूछा जब -
माँ खो गई,
पापा खो गये,
भाई भी तो खो दिए।
नहीं पूछा किसी ने कि - क्या खो दिया?
मत रो सब मौजूद है।
वो दिखा नहीं जो खोया मैंने,
अपना देख स्यापा मना रहे हैं।
उसको दोषी बना रहे हैं,
जिसने अपराध किया ही नहीं।
अपराधी खुद उँगली उठा रहे हैं।
बेगुनाह पर तोहमत लगा रहे हैं।
रविवार, 5 जून 2022
कुछ बोलती खामोशी!
खामोशी
यूँ ही नहीं होती
बोलती है
कहती है अपनी व्यथा ,
बस उसे सुननेवाला चाहिए ।
ओढ़ नहीं लेता कोई यूँ ही
खामोशी की चादर
विवश होता है ओढ़ने को ।
क्यों सोचा है कभी किसी ने ?
शायद नहीं -
नहीं तो खामोशी ओढ़ी ही क्यों जाती ?
खामोश सिर्फ जुबाँ ही नहीं होती,
आँखों में भी फैली होती है ,
वह खामोशी
जिसे हर कोई पढ़ नहीं सकता है।
खामोशी उस घर की
जिससे अभी अभी विदा हुआ कोई सदस्य
बस सिसकियों ही गूँजती है।
खामोशी
उस इंसान की जिसने खोया है अपने किसी अंश को,
कोई पढ़ सकता है ?
शायद वही जो भुक्तभोगी है,
अब खामोशी ओढ़ना मजबूरी है,
न कहीं जाना न आना
हालात सबके वही है
शायद ही कोई होगा
जिसने खोया न हो कोई अपना ,
उस दर्द को भी पीना अकेले ही है
खामोशी से
कोई काँधे पर हाथ भी न धरेगा
न पौंछेगा आँसू कोई
दर्द ओढ़ कर जीना है
दर्द का विष भी पीना है
वह भी खामोशी से ।
शुक्रवार, 3 जून 2022
मैं क्या हूँ?
मैं भाव हूँ
उमड़ता हूँ तो छा जाता हूँ
काले बादलों सा,
बरसता हूँ तो भी छा जाता हूँ
कागजों पर स्याही के संग
कलम पर सवार होकर
देखा होगा आपने?
पीड़ा भी हूँ,
और उल्लास भी
रुदन हूँ औ' हास भी,
अपना भी हूँ औ' दूसरे की भी
बस अपना समझ जिया उसको,
गरल बन पिया उसको,
जीवन में कुछ नया कर गया,
देखा होगा आपने?
मैं शब्द हूँ,
उमड़ता हूँ दिमाग में
कभी कल्पना से,
कभी साक्षी बनने से
कभी तो भोक्ता भी होता हूँ,
ढल जाता हूँ -
कभी कविता में,
कभी कहानी में
उतर कर कागजों पर रच जाता हूँ।
देखा होगा आपने?
बस इसीलिए तो हर रूप में स्वीकृति हूँ,
पीड़ा, भाव और शब्दों की अनुकृति हूँ।
सोमवार, 16 मई 2022
सदमा!
वो मेरी बहुत
घनिष्ठ और आत्मीय
अचानक एक दिन खो बैठी
अपने जीवन साथी को।
अवाक् और हतप्रभ खामोश हो गई।
जब पहुँची उसके सामने तो
सदमे में घिरी
उदास और बेपरवाह सी बैठी थी।
मुझे देख चहक कर बोली-
तुम्हें वो बहुत इज़्ज़त देते थे, कभी बात नहीं टाली
एक फोन किया नहीं कि पहुँच गये,
ए सुनो मुझे उनसे मिलना है,
तुम्हें मिले तो कह देना
मैंने बुलाया है।
तुम्हारी बात टालेंगे नहीं।
कहोगी न, कहोगी न!
फिर फफक फफक कर रो पड़ी,
मैं देखती रह गई,
मेरे पास उसको समेटने के सिवा कुछ न था।
रविवार, 8 मई 2022
माँ !
माँ
क्या
एक इंसान भर होती है
फिर क्यों लोग
सगी और सौतेली का ठप्पा लगा देते हैं।
माँ
एक भाव है,
जरूरी नहीं कि उसने
हर बच्चे को जन्म दिया हो,
फिर भी संभव है
कि बहुतों को प्यार दिया हो।
माँ
जो प्यार बाँटती है,
अपने बच्चों में,
पराये बच्चों में भी,
वह न देवकी होती है न यशोदा
फिर भी वह माँ होती है।
माँ
ऐसी भी होती है,
समेट लेती है,
उन बच्चों को भी
जो आँखों में आँसू लिए
नजर आ जाते है।
माँ
वह इंसान है
जिसे हर बच्चे में
अपना ही अंश दिखाई देता है
और प्यार तो वह अपरिमित बाँटती है।
हाँ
माँ
एक भाव ही होती है,
अपने पराए से परे
आँचल पसारे , दिल खोले,
आँखों में प्यार लिए होती है।
--रेखा श्रीवास्तव
गुरुवार, 14 अप्रैल 2022
माँ!
माँ !
माँ
एक भाव ,
एक चरित्र में समाया
वो अहसास है
जो उम्र , लिंग या रिश्ते का मुहताज़ नहीं होता ।
ये जन्म से नहीं ,
हृदय से जुड़ा हुआ
वो भाव है ,
जो
हर किसी को नहीं मिलता ।
जन्म देकर भी कोई माँ नहीं बन पाती है,
और कोई
बिना जन्म दिये माँ बनकर
निर्जीव से शरीर में प्राण डाल देती है ।
वो बहन, भाई , या कोई अजनबी हो
अगर ममता से भरा वह दिल
छूटी हुई डोर थाम कर
प्राण फूँक देता है,
तो
ममत्व इस दुनिया में सबसे महान हैं
और
माँ तो
सबसे परे
ईश्वर के समकक्ष रखी जाती है ।
रविवार, 13 मार्च 2022
किसको दूँ ?
सोचती हूँ ,
जिंदगी किसके नाम करूँ,
वे जो अकेले है,
देख रहे है आशा से
कोई तो बाँट दे सुख-दूख उनका,
कुछ पल उनको ही सौंप दूँ ।
काँप रहे हैं पाँव जिनके,
लड़खड़ा रही है छाँव जिनकी
थाम लूँ बाँह उनकी
मैं बन जाती हूँ ,
शेष जीवन का सहारा
मेरे सहारे चलो ।
बहुत है सम्पत्ति जिन पर
भरे है भंडार जिनके,
फौज है भीतर बाहर
बस दो पल के मुहताज हैं,
बैठ कर पास उनके
दे सकूँ कुछ पल का साथ
बाँट लूँ एकाकीपन का अहसास।
सुन लूँ उन्हें कुछ
आदेश जिनके दस्तावेज थे,
पत्ता खड़कने से पहले,
लेता था इजाजत उनकी,
अब
असमर्थ होकर निराश्रित हो
जी रहे खामोशी को,
कोई नहीं अब उनका,
देख ले उनकी तरफ अपनत्व से,
किसी को नहीं फुर्सत इतनी
अपने सा समझ कर
अपना बन जाऊँ।
मौन छा गया है,
छिन गई वाणी उनकी
पल भर उनके आँसुओं को पोंछ कर,
बेबसी के अंधेरे से
उबार ही लूँ तो कुछ बात बने।