रविवार, 5 जून 2022

कुछ बोलती खामोशी!

 खामोशी 

यूँ ही नहीं होती

बोलती है 

कहती है अपनी व्यथा ,

बस उसे सुननेवाला चाहिए ।

ओढ़ नहीं लेता कोई यूँ ही 

 खामोशी की चादर 

विवश होता है ओढ़ने को ।

क्यों सोचा है कभी किसी ने ?

शायद नहीं -

नहीं तो खामोशी ओढ़ी ही क्यों जाती ?

खामोश सिर्फ जुबाँ ही नहीं होती, 

आँखों में भी फैली होती है ,

वह खामोशी

जिसे हर कोई पढ़ नहीं सकता है। 

खामोशी उस घर की

जिससे अभी अभी विदा हुआ कोई सदस्य

बस सिसकियों ही गूँजती है।

खामोशी 

उस इंसान की जिसने खोया है अपने किसी अंश को,

कोई पढ़ सकता है ?

शायद वही जो भुक्तभोगी है,

अब खामोशी ओढ़ना मजबूरी है,

न कहीं जाना न आना

हालात सबके वही है 

शायद ही कोई होगा 

जिसने खोया न हो कोई अपना ,

उस दर्द को भी पीना अकेले ही है

खामोशी से 

कोई काँधे पर हाथ भी न धरेगा

न पौंछेगा आँसू कोई 

दर्द ओढ़ कर जीना है 

दर्द का विष भी पीना है 

वह भी खामोशी से ।

1 टिप्पणी:

  1. ओह , अत्यंत मार्मिक । पिछले दो साल ज8समें अधिकतर लोगों ने अपनों को खोया है उसका सजीव चित्रण कर दिया है ।।

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