बुधवार, 8 जून 2022

कुछ खो गया!

 कुछ खो गया!


इस सफर में

कुछ खो गया, या छूट गया,

हर तरफ उँगली उठी - 

'दोषी तुम हो,

ध्यान कहाँ रहता है?

कहाँ खोई रहती हो?

गाढ़ी कमाई का पैसा है।'

आँखें बंद किए,

मींच कर ओंठ,

आँसू घुटकती गले के नीचे,

रसोई में खड़ी रोटी सेंक रही थी।

पी गई, सब आरोप, कटाक्ष 

जो छोटे और बड़ों ने दिए थे।

एक सवाल उठा जेहन में - 

कभी सोचा है मैंने अपना क्या क्या खोया है?

अपनी बेबाक आवाज़ खोई है,

अन्याय के खिलाफ उठती हुई हुँकार खोई है,

वे शब्द खोए, 

जिन पर पहरा लगा हुआ है,

अपना सच कहने का हौसला खोया है,

मेरा सच आग के हवाले हो गया,

सच का हुआ पोस्टमार्टम तो

कलम, कागज,शब्द खो गये,

तब भी नहीं पूछा जब - 

माँ खो गई,

पापा खो गये,

भाई भी तो खो दिए।

नहीं पूछा किसी ने कि - क्या खो दिया?

मत रो सब मौजूद है।

वो दिखा नहीं जो खोया मैंने,

अपना देख स्यापा मना रहे हैं।

उसको दोषी बना रहे हैं, 

जिसने अपराध किया ही नहीं।

अपराधी खुद उँगली उठा रहे हैं।

बेगुनाह पर तोहमत लगा रहे हैं।

8 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसी तोहमतें लगती रहेंगी और उनको पता भी नहीं चलेगा कि क्या क्या खो दिया गया ।
    उलाहने को सुंदरता से उकेरा है ।

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 09.06.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4456 में दिया जाएगा| मंच पर आपकी उपस्थिति चर्चाकारों का हौसला बढ़ाएगी
    धन्यवाद
    दिलबाग

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  3. बस स्वयं से संबंधित ही लोगों को दिखता कौन क्या को रहा है सचमुच कौन देखता है।
    हृदय स्पर्शी सृजन।

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  4. मन की व्यथा को कौन समझता है
    लेकिन जिस पर बीतती है वह भीतर ही भीतर टूटता जाता है.
    मन को मथती
    भावपूर्ण रचना
    सादर

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  5. स्त्री मन की व्यथा का मार्मिक चित्रण।सच ऐसा ही तो होता आया है ।

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  6. जिनके लिए जीवन की इस बदहाली तक पहुँचने के समझौते किए वे ही खो गये सब कुछ खोकर भी समझौते खतम होने के वजाय आदत बन गये ...अब कुछ नहीं खोने को फिर भी समझौते हैं और आँसू हैं...
    मन मंथन करती बहुत ही हृदयस्पर्शी एवं लाजवाब रचना।

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