लोग कहते हैं ,
हवेलियां मजबूत होती हैं ,
एक पीढ़ी उसको बनाती है
तो
दूसरी पीढ़ी उसको सजाती है ।
ये मैंने भी देखा है ,
साथ ही देखा है -
बड़ी बड़ी हवेलियों को दरकते हुए ,
भले ही ईंटें न बिखरें ,
छतें न दरकेंं
फिर भी दीवारों में दरारें आ ही जाती हैं।
बनने लगती है,
नयी दीवारें आँगन में,
बाँटने को पीढ़ियों के अंतर को।
कोई भी हवेली अखण्ड नहीं होती है,
वो बरगद या पीपल नहीं होती,
जो शाख-दर-शाख चलती ही रहे।
बीज भले दूर दूर तक जाकर उग आयें
हवेलियाँ कहीं नहीं जाती है।
एक दिन ढह जाती हैं
और खण्डहर बन सदियों तक भले पड़ी रहें।
'हवेलियाँ बरगद या पीपल नहीं होती।' --वाह ..बहुत खूब। सादर।
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी सृजन।
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता . सब कुछ बदल जाता है कुछ समयान्तर से और कुछ स्थानान्तर से . चिन्ता तो यह कि संस्कृति का हस्तान्तरण कम या लगभग बन्द ही होगया है .
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जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(१९-०९ -२०२२ ) को 'क़लमकारों! यूँ बुरा न मानें आप तो बस बहाना हैं'(चर्चा अंक -४५५६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
यह यथार्थ कटु लगा और अंदर कुछ दरक भी गया। पर होता तो ऐसा ही है। सुन्दर अभिव्यक्ति।
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