शनिवार, 27 अक्टूबर 2012

श्मशान तक !

    हर इंसान वाकिफ  है जिन्दगी की हकीकत से
        जिन्दगी के रास्ते आखिर श्मशान तक जाते हैं .

आता तो है हर इंसान इस  दुनियां एक तरह से 
जिन्दगी में अपनी फिर क्यों भटक जाते हैं।  

ऐसा नहीं कि वे वाकिफ न हो अंजाम से अपने 
फिर क्यों दौलत के लिए दलदल में फँस जाते हैं। 

रिश्तों और जज्बातों को इस तरह दुत्कार दिया 
जब याद आये अकेले में तो वे दम तोड़ जाते हैं।

गर फरिश्ते न बनें इंसान तो बने रहिये फिर भी 
इंसानों की मैयत पर ही दो अश्क गिराए जाते हैं। 

 ऐसे ही न जाने कितने श्मशान तक जाने के लिए 
आखिर में चार कन्धों के सहारे को तरस जाते हैं।

15 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर रचना के लिए मेरा आभार स्वीकार करें.

    जवाब देंहटाएं
  2. सच में ज़िन्दगी का किनारा तो वही है. सम सब के लिए. आपकी इन पंक्तियों से कृष्ण बिहारी नूर की लिखी ग़ज़ल याद आ रही है-

    ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
    और क्या जुर्म है पता ही नहीं

    ज़िन्दगी मौत तेरी मंजिल है
    दूसरा कोई रास्ता ही नहीं.

    जवाब देंहटाएं
  3. शमशान का रास्ता ढूंढना ही भटकाव से गुजरता है

    जवाब देंहटाएं
  4. एकदम सही कहा आपने .बहुत सार्थक प्रस्तुति .आभार

    जवाब देंहटाएं
  5. गर फरिश्ते न बनें इंसान तो बने रहिये फिर भी
    इंसानों की मैयत पर ही दो अश्क गिराए जाते हैं।

    ...बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना..

    जवाब देंहटाएं
  6. निहार रंजन जी आपका मेरे ब्लॉग पर बहुत स्वागत है।

    जवाब देंहटाएं
  7. जिंदगी में भटकाव के बाद ...सुकून का विश्राम स्थल ...

    जवाब देंहटाएं
  8. जीवन के यथार्थ को बहुत ही खूबसूरती के साथ रचना में ढाल दिया है आपने रेखा जी ! हर जीवन का यही अंत होना है !इस सुन्दर रचना के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें !

    जवाब देंहटाएं
  9. यही होता है,श्मशान-वैराग्य थोड़ी देर को जागता है और फिर सब जस का तस !

    जवाब देंहटाएं