गुरुवार, 26 अगस्त 2010

ऊँचाई एक त्रासदी !

जीवन में ऊँचाइयों तक जाना
एक खूबसूरत ख़्वाब 
बन कर सबकी आँखों में
तैरता जरूर है.
ये ख़्वाब सुन्दर हो सकता है,
कल्पना के लिए मोहक भी,
लेकिन 
आप कहीं भी ऊँचाई की ओर 
प्रस्थान कर लीजिये
जमीं से छूट  जायेंगे.
वैभव से ऊँचे उठिए,
कुछ अपने खुदबखुद
दूर होने लगते हैं,
फिर वे आपको भी
अपने से नीचे नजर आते हैं.
चाहे आप करें या
आप से डर कर वे हों.
ऊँचाई की तरफ बढ़ते कदम
चाहे शिखरों पर चढ़ें, 


                                         चाहे गगन में उड़ें, 
                                         चाहे मंजिलें तय करें,

                                  या फिर अट्टालिकाओं पर हों.

आप एकाकी होने लगते हैं.
वहाँ कोई साथ नहीं होता.
न जमीं अपनी , न आसमान अपना
ऊपर से जमीं नजर नहीं आती,
फिर अपनों को पहचानेगा कैसे?
इतनी ऊँचाइयों से गर कभी
नीचे आना चाहो,
पहचान खो जाती है,
अगर गिरे तो 
जमीं भी तो कतराती है
और फिर तो 
जमीं अपने आगोश में नहीं लेती
मौत के आगोश में दे देती है.

सोमवार, 23 अगस्त 2010

राखी तो बस राखी है !

ये कविता उन सभी भाइयों के लिए जो इस पर्व को इस पवित्र रिश्ते का साक्षी मानते हैं. 

रंग बिरंगे धागों में
बंधा हुआ संसार 
कहाँ जड़े हैं प्यार के मोतीं
वहाँ मान मनौवल होती है,
बस रिश्ते की डोर बंधी
ये मोहक बंधन होती है.
युग बीते और सदियाँ गुजरीं
राखी तो बस राखी है
जिसने बाँधी और जो बंध जाए
बस उस रिश्ते की थाती है. 
नहीं चाहिए बदले में कुछ
बस दुआएं देती है.
छोटी है तो हाथ शीश पर 
समझ कर अभयदान लेती है.
बड़ी है तो ढेर आशीषे लेकर
भाई को दुआ प्रेम से देती है.

रक्षाबंधन पर सभी लोगों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं !

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

जननी की व्यथा !

जननी होना
अब शायद अभिशाप
बनता जा  रहा है.
किन्तु सृष्टि न थम जायेगी?
जननी, जनक औ' संतति
से ही तो निर्मित है 
ये संसृति अनंत.
लेकिन फिर भी - 
'क्या किया जीवन भर?'
'क्या दिया है हमको ?"
"सब कुछ हमने जुटाया है."
ये जुमले आज 
घर घर में उछलते हैं.
जो कुछ बनाया हमारा है,
जो कुछ जुटाया हमारा है,
पर माँ मौन,
उसके छलकते आँसू औ'
भावों का उमड़ता सागर
कह रहा है --
इस तुम्हारे निर्माण के सफर में
और इस विराट साम्राज्य की नींव में
पत्थर मेरे ही संकल्पों के लगे हैं,
मेरे पसीने , आँसू औ'
मीलों पैदल चलकर
जो सफर तय किया था
पैसा जुटाने के लिए
उससे पड़े पैर के छालों से 
रिसते हुए पानी से
इसका गारा बना है.
तभी बुनियाद इतनी दृढ है.
जिसपर तुमने अपनी आकांक्षाओं का 
ये भव्य महल बनाया है
और उसमें
अहंकार की मोटी चादर के
परदे लगाये हैं,
कुछ भी तो नहीं दिखता है अब.
सिर्फ तानों का संगीत
मेरे लिए तुमने बजाया है.
जिसके सुरों ने मेरे मन को
अन्दर तक हिला दिया है.
ये मेरे माँ होने का  
अच्छा  सिला दिया है.
मेरे मातृत्व और संस्कारों को 
मिट्टी में मिला दिया है.

शनिवार, 14 अगस्त 2010

आजाद तिरंगे की डोर के हकदार !

आजादी का गुलदस्ता 
सुन्दर सपनों के फूलों से सजा
वे  हमें सौंप गए 
और हमने उसकी खुशबू में
पागल होकर 
उसकी पंखुड़ी पंखुड़ी नोच डाली,
भ्रम की बड़ी बड़ी योजनायें
भरमाने लगी हमें
औ'
हम भ्रम में उलझ गए.
वे सियासत की चालों में
शतरंज  की बिसात  बना कर
हमें ही मोहरा बनाने लगे.
कभी मुहर लगवा कर
कभी बटन दबवा  कर
और फिर 
आजादी की तस्वीर में
अपनी मर्जी के रंग भर डाले.
हम अब विवश हैं -
हक अपना बेच चुके हैं उनके हाथों,
अब उस गुलदस्ते के तो 
अवशेष भी न बचे हैं.
वे आँखें जो 
उस संघर्ष की आज भी साक्षी हैं,
आज की दुर्दशा पर 
जार-जार रोती हैं.
कभी कोई उनको
इस आजाद भारत के दिन
आजाद तिरंगे की डोर नहीं थमाता
जिसके वे सच्चे हकदार हैं.
सिर्फ पेंशन से तौल दिया है
उनके संघर्ष की कीमत पैसे नहीं 

उन्हें सम्मान दीजिये
अभी भी जो बाकी हैं
बस उनको मान दीजिये.

बुधवार, 11 अगस्त 2010

विश्व न बचेगा!

वो बादल का फटना ,
ज्वालामुखी  उबलना,
नदियों का ठाठें भरना,
और थरथराना धरा का 
ये होती हैं खबरों की धरोहर
इन्हें  धरोहर मत बनाओ .
अरे मानवो ,
अब तो चेत जाओ.
मत खेलो 
प्रकृति की अमानतों से
जब भी कुपित होगी 
ख़त्म कर देती है
नस्लें तुम्हारी
औ'
ख़त्म वे होते हैं,
जिनका दूर दूर तक
इससे रिश्ता नहीं होता.
दोहन कोई और करे,
शोषण कोई और करे,
प्रयोगों की शूली पर
चढाते हैं और
फिर 
दफन वे होते हैं -
सांसें थमती हैं उनकी,
मलवों में
नेस्तनाबूद होते हैं वे,
जल की प्रबल धारा
बहाती है उनको
जिन्दगी जिन्हें अभी
जीना था बाकी
अधूरे सपनों की मंजिलें
पाना था बाकी.
त्रासदी ये भी है,
उन्हें अंत में कन्धा देने वाले,
उनके अवशेषों को
इकठ्ठा करने वाले,
उखड़ती साँसों को
थामे जो खड़े हैं,
नब्ज टटोलकर 
जिन्दगी तलाशने वाले 
वे कोई और होते हैं.
जब मानवता जार जार रोती है
उन सब में
तुम कहीं नहीं होते हो
तुम होते हो - बस
इन मौतों  के जिम्मेदार
इस कलंक को ढोते
तुम्हारे मंसूबे और प्रयोग
एक इतिहास तो रचेगा
लेकिन 
उस इतिहास को पढ़ने वाला
तब तक शायद
ये विश्व न बचेगा.

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

खाली हाथ !

मैं 
कुछ इस तरह 
मजबूर हुआ,
कि उठ नहीं सकता,
वक्त की मार कहूं
या तकदीर का सौतेलापन
कल तक
हाथ में हाथ लेकर 


घूमते थे दोस्त मेरे
आज 
कुछ इस तरह 
गुजर जाते हैं,
जैसे पहचानते नहीं.
अरे सहारा नहीं माँगा
मुस्करा कर
एक नजर देख ही लेते
हम भी कुछ 
सोच कर खुश  हो लेते.
पर वे 
सहारे के खौफ से
दूर से गुजार गए.
सही कहा है
वक्त साथ है
सब साथ हैं
नहीं तो

इंसां बस खाली हाथ है.

रविवार, 8 अगस्त 2010

परिभाषा !

मन थिरक थिरक जाए
किसी आशा की ख़ुशी में,
उड़ा दे जिन्दगी के गम और
निराशा को कभी हंसी में.

मलिन नहीं मन हुआ कभी
देख कर जिन्दगी की धूप भी ,
मोह न सका कभी स्वर्ण मृग
औ' दमकता कृत्रिम  रूप भी.

हकीकत के गर्म पत्थरों पर
नंगे पाँव चलना मजूर था,
अँधेरे में लड़खड़ाए तो थे कदम
क्योंकि आशा का वो दीप दूर था.

टूटा नहीं हौंसला सब कुछ गवांने पर
शेष थी कुछ खोकर पाने की आशा,
बदल गए प्रतिमान इस सफर में
शायद यही है जिन्दगी की परिभाषा.