जीवन में ऊँचाइयों तक जाना
एक खूबसूरत ख़्वाब
बन कर सबकी आँखों में
तैरता जरूर है.
ये ख़्वाब सुन्दर हो सकता है,
कल्पना के लिए मोहक भी,
लेकिन
आप कहीं भी ऊँचाई की ओर
प्रस्थान कर लीजिये
जमीं से छूट जायेंगे.
वैभव से ऊँचे उठिए,
कुछ अपने खुदबखुद
दूर होने लगते हैं,
फिर वे आपको भी
अपने से नीचे नजर आते हैं.
चाहे आप करें या
आप से डर कर वे हों.
ऊँचाई की तरफ बढ़ते कदम
चाहे शिखरों पर चढ़ें,
चाहे गगन में उड़ें,
चाहे मंजिलें तय करें,
या फिर अट्टालिकाओं पर हों.
आप एकाकी होने लगते हैं.
वहाँ कोई साथ नहीं होता.
न जमीं अपनी , न आसमान अपना
ऊपर से जमीं नजर नहीं आती,
फिर अपनों को पहचानेगा कैसे?
इतनी ऊँचाइयों से गर कभी
नीचे आना चाहो,
पहचान खो जाती है,
अगर गिरे तो
जमीं भी तो कतराती है
और फिर तो
जमीं अपने आगोश में नहीं लेती
मौत के आगोश में दे देती है.