गुरुवार, 26 अगस्त 2010

ऊँचाई एक त्रासदी !

जीवन में ऊँचाइयों तक जाना
एक खूबसूरत ख़्वाब 
बन कर सबकी आँखों में
तैरता जरूर है.
ये ख़्वाब सुन्दर हो सकता है,
कल्पना के लिए मोहक भी,
लेकिन 
आप कहीं भी ऊँचाई की ओर 
प्रस्थान कर लीजिये
जमीं से छूट  जायेंगे.
वैभव से ऊँचे उठिए,
कुछ अपने खुदबखुद
दूर होने लगते हैं,
फिर वे आपको भी
अपने से नीचे नजर आते हैं.
चाहे आप करें या
आप से डर कर वे हों.
ऊँचाई की तरफ बढ़ते कदम
चाहे शिखरों पर चढ़ें, 


                                         चाहे गगन में उड़ें, 
                                         चाहे मंजिलें तय करें,

                                  या फिर अट्टालिकाओं पर हों.

आप एकाकी होने लगते हैं.
वहाँ कोई साथ नहीं होता.
न जमीं अपनी , न आसमान अपना
ऊपर से जमीं नजर नहीं आती,
फिर अपनों को पहचानेगा कैसे?
इतनी ऊँचाइयों से गर कभी
नीचे आना चाहो,
पहचान खो जाती है,
अगर गिरे तो 
जमीं भी तो कतराती है
और फिर तो 
जमीं अपने आगोश में नहीं लेती
मौत के आगोश में दे देती है.

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत दिनों बाद इतनी बढ़िया कविता पड़ने को मिली.... गजब का लिखा है

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  2. ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती........इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...

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  3. shikhar par pahunchne ke bad admi akela hi hota hota hai .sflta ke bad nirasha jnm leleti hai .
    achhi kvita

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  4. बस यही कशमकश तो मरे डालती है .

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  5. सही विश्लेषण किया ..जितना ऊपर जाते हैं उतना ही अकेलापन लगने लगता है ....अच्छी रचना

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  6. mukesh bhai,

    इसी चाहत की होड़ तो हमें अपनों से जुदा कर देती है, हम खुद तो ऊँचे पहुँच जाते हैं लेकिन बहुत कुछ पीछे छूट जाता है. तब ऊँचाई और उससे अधिक ऊँचाई ही दिखाई देती है. जमीं से तो नाता ही ख़त्म हो जाता है.

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  7. जीवन की कशमकश को रक्खा है आपने ... लाजवाब ...

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