शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

जननी की व्यथा !

जननी होना
अब शायद अभिशाप
बनता जा  रहा है.
किन्तु सृष्टि न थम जायेगी?
जननी, जनक औ' संतति
से ही तो निर्मित है 
ये संसृति अनंत.
लेकिन फिर भी - 
'क्या किया जीवन भर?'
'क्या दिया है हमको ?"
"सब कुछ हमने जुटाया है."
ये जुमले आज 
घर घर में उछलते हैं.
जो कुछ बनाया हमारा है,
जो कुछ जुटाया हमारा है,
पर माँ मौन,
उसके छलकते आँसू औ'
भावों का उमड़ता सागर
कह रहा है --
इस तुम्हारे निर्माण के सफर में
और इस विराट साम्राज्य की नींव में
पत्थर मेरे ही संकल्पों के लगे हैं,
मेरे पसीने , आँसू औ'
मीलों पैदल चलकर
जो सफर तय किया था
पैसा जुटाने के लिए
उससे पड़े पैर के छालों से 
रिसते हुए पानी से
इसका गारा बना है.
तभी बुनियाद इतनी दृढ है.
जिसपर तुमने अपनी आकांक्षाओं का 
ये भव्य महल बनाया है
और उसमें
अहंकार की मोटी चादर के
परदे लगाये हैं,
कुछ भी तो नहीं दिखता है अब.
सिर्फ तानों का संगीत
मेरे लिए तुमने बजाया है.
जिसके सुरों ने मेरे मन को
अन्दर तक हिला दिया है.
ये मेरे माँ होने का  
अच्छा  सिला दिया है.
मेरे मातृत्व और संस्कारों को 
मिट्टी में मिला दिया है.

8 टिप्‍पणियां:

  1. Rekha di, sach me badi khubi se aapne janani ki vyatha ko sanjoya hai shabdo me..........:)

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  2. बहुत गहरी रचना...विचार रहा हूँ पढ़कर.

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  3. गहरी वेदना छुपी हैं इन पंक्तियों में....बहुत ही भावपूर्ण रचना

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