बुधवार, 11 अगस्त 2010

विश्व न बचेगा!

वो बादल का फटना ,
ज्वालामुखी  उबलना,
नदियों का ठाठें भरना,
और थरथराना धरा का 
ये होती हैं खबरों की धरोहर
इन्हें  धरोहर मत बनाओ .
अरे मानवो ,
अब तो चेत जाओ.
मत खेलो 
प्रकृति की अमानतों से
जब भी कुपित होगी 
ख़त्म कर देती है
नस्लें तुम्हारी
औ'
ख़त्म वे होते हैं,
जिनका दूर दूर तक
इससे रिश्ता नहीं होता.
दोहन कोई और करे,
शोषण कोई और करे,
प्रयोगों की शूली पर
चढाते हैं और
फिर 
दफन वे होते हैं -
सांसें थमती हैं उनकी,
मलवों में
नेस्तनाबूद होते हैं वे,
जल की प्रबल धारा
बहाती है उनको
जिन्दगी जिन्हें अभी
जीना था बाकी
अधूरे सपनों की मंजिलें
पाना था बाकी.
त्रासदी ये भी है,
उन्हें अंत में कन्धा देने वाले,
उनके अवशेषों को
इकठ्ठा करने वाले,
उखड़ती साँसों को
थामे जो खड़े हैं,
नब्ज टटोलकर 
जिन्दगी तलाशने वाले 
वे कोई और होते हैं.
जब मानवता जार जार रोती है
उन सब में
तुम कहीं नहीं होते हो
तुम होते हो - बस
इन मौतों  के जिम्मेदार
इस कलंक को ढोते
तुम्हारे मंसूबे और प्रयोग
एक इतिहास तो रचेगा
लेकिन 
उस इतिहास को पढ़ने वाला
तब तक शायद
ये विश्व न बचेगा.

8 टिप्‍पणियां:

  1. एक इतिहास तो रचेगा
    लेकिन
    उस इतिहास को पढ़ने वाला
    तब तक शायद
    ये विश्व न बचेगा

    -सच कहा...बहुत गहरी बात!

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  2. हम विश्व को प्रलय की ओर जाता हुआ देख रहे हैं और किसी को भी रोक नहीं पा रहे हैं.

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  3. पर्यावरण पर सार्थक सोच ...बहुत अच्छी रचना ...

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  4. chet jao manavo.........

    bacha lo iss dhara ko.....:)

    rekha di aap bimar ho kar, apne soch ko shant nahi baithne de rahe ho..........bahut gahri rachna!

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  5. बहुत डरावना द्रश्य उपस्थित किया है आपने .. प्रकृति से छेड़ छाड़ करने वालों को जागना होगा ...

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