दर्द
अकेलेपन का
कभी किसी ने सहा है,
सिर्फ इंसान ही नहीं
सभी इस दंश को जीते हैं।
इस धरा के
शाश्वत सत्य के चलते
अकेले आये हैं
और अकेले ही जायेंगे।
इस एकाकीपन के दंश को
जिसने भी जिया
जीते हैं और फिर टूट जाते हैं।
भरे बाग़ में खड़ा
ठूँठ , जिसे
किसी पेड़ की शाखाएं
हरीतिमा के बिना छू नहीं पाती है।
सिमट जाते हैं पेड़
अपने में ही
इस डर से कि कहीं
ये सूखा रोग
उसके हरे भरे कलेबर को
सुखा न दे कहीं।
निर्जन पगडंडी उदास सी
राही की राह देखती हैं
जब उड़ती है धूल
मानव , वाहन या हवाओं से
जी उठती हैं।
अब न धूल उड़ाती है हवाएं
न कोई राही गुजरता है
यहाँ से
बस सुनसान से
अंधेरों का गम
उनको भी खाए जाता है .
दो जोड़ी
उदास आँखें
दरवाजे पर बैठीं
किसी के आने के इन्तजार में
पथरा गयीं है .
राह देखते देखते
और अब खामोश सी
निष्प्रभ सी स्थिर हो चुकी है ,
शायद जाने का वक़्त आ गया है .
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंएकाकीपन के दर्द का सच्चा बयान. बहुत अच्छी लगी रचना.
जवाब देंहटाएंज़िंदगी की सच्चाई से रु ब रु कराती गहन अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबहुत ही गहरे भावो की अभिवयक्ति......
जवाब देंहटाएंअकेलापन अक्सर उदासी ही लाती है
जवाब देंहटाएंसार्थक व सुन्दर रचना