बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

बदनसीबी !



जब बहुत पास से  
गुजरे तुम
तुम्हारी खुशबू 
मेरे चारों तरफ फैल गयी.
गहरी श्वास भरी
और अहसास तुम्हारा होते ही,
आवाज दी -- कहाँ हो तुम?
आवाज तो निकली 
लेकिन फिर वो 
टकरा के बादलों से
चारों तरफ  गूँजने लगी .
गूँजती रही
फिजां में बहुत देर तक
बस 
मिलने की घड़ी न आई
आँखों में 
आँसू लिए अफसोस के
जा बैठी खिड़की में
फिर
मायूस , खामोश मेरी आवाज
वापस मेरे पास आ गयी
तुमसे मिले बगैर
शायद मिलना नसीब में न था.

5 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय रेखा श्रीवास्तव जी
    नमस्कार !
    ह्र्दय की गहराई से निकली अनुभूति रूपी सशक्त रचना
    आपने ब्लॉग पर आकार जो प्रोत्साहन दिया है उसके लिए आभारी हूं

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  2. वसन्त की आप को हार्दिक शुभकामनायें !
    कई दिनों से बाहर होने की वजह से ब्लॉग पर नहीं आ सका
    बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..

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  3. एक मार्मिक कविता के लिये धन्यवाद

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