कुम्हार की चाक पर
ढलते हुए दिए
आपस में कुछ इस तरह
बात कर रहे थे-
'भाई आज हम साथ साथ
ढल रहे हैं.
पता नहीं कल बिखर कर
कहाँ कहाँ जायेंगे?
पर मेरे भाई एक वादा कर
हम कहीं भी रहें
अपने धर्म को पूरे मन से
जीवन भर निभाएंगे.'
दूसरा बोला -
'दोस्त कैसा जीवन?
एक बार जला कर
कुचल दिए जायेंगे,
माटी से बने हम
फिर माटी में मिल जायेंगे.'
'मन छोटा न करो भाई,
अरे हम तो हैं माटी के,
इस इंसान को तो देखो
बना है पञ्च तत्वों से
करता है प्रपंच
देता है धोखा
बुद्धि से भरा है
किन्तु क्या अमर है?
मिलना उसको भी माटी में है.
हम तो फिर भी रोशन करते हैं
घर दूसरों का ,
अँधेरे में रास्ते दिखा देते हैं.
दो क्षण का ऐसा जीवन
सौ सालों से अच्छा है.'
'भाई अब अफसोस नहीं
मुझको चंद क्षणों का
रोशन जीवन पसंद है. '