शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010

माटी के दिए !

कुम्हार की चाक पर
ढलते हुए दिए
आपस में कुछ इस तरह
बात कर रहे थे-
'भाई आज हम साथ साथ
ढल रहे हैं.
पता नहीं कल बिखर कर
कहाँ कहाँ जायेंगे?
पर मेरे भाई एक वादा कर
हम कहीं भी रहें
अपने धर्म को पूरे मन से
जीवन भर निभाएंगे.'

दूसरा बोला -
'दोस्त कैसा जीवन?
एक बार जला कर
कुचल दिए जायेंगे,
माटी से बने हम
फिर माटी में मिल जायेंगे.'
'मन छोटा न करो भाई,
अरे हम तो हैं माटी के,
इस इंसान को तो देखो
बना है पञ्च तत्वों से
करता है प्रपंच
देता है धोखा
बुद्धि से भरा है
किन्तु क्या अमर है?
मिलना उसको भी माटी में है.
हम तो फिर भी रोशन करते हैं
घर दूसरों का ,
अँधेरे में रास्ते दिखा देते हैं.
दो क्षण का ऐसा जीवन
सौ सालों से अच्छा है.'
'भाई अब अफसोस नहीं 
मुझको चंद क्षणों का
रोशन जीवन पसंद है. '

सोमवार, 25 अक्टूबर 2010

ये कैसे रिश्ते?

                    पता नहीं क्यों? कुछ खबरें और कुछ घटनाएँ  कुछ इस तरह से दिल में उतर जाती हैं की रोक नहीं पाती खुद को और न ये कलम रुकने को तैयार होती है.ऐसी ही एक घटना आपसे बाँट रही हूँ लेकिन कुछ कविता के रूप में.
ये कैसे रिश्ते? 
एक विस्फोट हुआ 
औ' जलने लगी दुनियाँ उसकी
वह झोपड़ी में रह गयी,
बचाने को कुछ गृहस्थी और
उठाने लगी थी 
कुछ बक्से में रखे रूपये.
तभी धू धू करता छप्पर 
उसके ऊपर गिरा और 
वह खुद जलने लगी.
कुछ गलत हो रहा था
उसके घर में ,
उसे क्या पता?
दिन भर खेतों में
काम करती और 
रात में लौटती तो 
चूल्हा जला कर पकाती और खिलाती.
वह घर , वह परिवार ,
जो उसने बनाया था
सब ख़त्म हो गया?
पति भाग गया,
बच्चे भाग गए,
ब्याहता बेटी भी 
अपने फंसने के डर से
पति के घर अँधेरे में निकल ली.
पुलिस आई तो
उसके जले शव को
पोस्टमार्टम के   लिए ले गयी. 
कुछ शंका थी,
समाधान भी  उससे ही होना था.
बारूद की गंध से 
कुछ सुराग मिलेगा.
दूसरे दिन 
पोस्टमार्टम हाउस के सामने
कोई नहीं था.
बस पांच औरते आयीं थी.
सोचा कोई घर वाली होंगी,
रिश्तेदार होंगी?
या फिर पड़ोसी होंगी?
पूछा कौन है वे इसकी?
कोई नहीं!
खेत में साथ काम करती थी.
सुना तो देखने आ गयीं.
कल तक तो जिन्दा थी.
रोज मिलते थे,
अब सोचा कि आखिरी दर्शन कर लें.
उसका कोई घर वाला 
कोई भी नहीं आया 
तीन बेटे , दो बेटियाँ ,
और उसका बाप कोई भी नहीं.
इस मिट्टी का क्या करें?
कोई नहीं तो हमको दे दो,
पाँचों ने कन्धा देकर 
उसे श्मशान पहुँचाया.
धोती के छोर में बंधे 
रुपये इकट्ठे किये 
आज तीन दिन की मजदूरी मिली थी.
उसका क्रियाकर्म किया.
दूर देखा तो
उसका बेटा तमाशा देख रहा था.
पुलिस पर नजरें पड़ीं तो 
भाग गया .
ये कौन सा रिश्ता था?
जिसने कन्धा दिया,
तीन दिन की कमाई उसकी
अंत्येष्टि में लगाई
और दो आँसू गिरा कर 
श्रद्धांजलि दे दी.
ये वो रिश्ता है,
जो न खून का है,
न पैसे का है ,
और न ही स्वार्थ का है.
निस्वार्थ, मानवता में लिप्त 
ये रिश्ता ही तो
इस धरती पर टिका है.
जिसने डगमगाती धरा को
संतुलित किया है और
इसी को तो हमने 
मानवता का नाम दिया है.

सोमवार, 18 अक्टूबर 2010

सुकून की दौलत !

अरे मूर्ख इंसान ,
तू भूला है  कहाँ?
जिन्दगी को अपनी
दौलत और ताकत की
नुमाइश बनाये फिरता है .
इससे खरीदी इज्जत तो
कभी ठहरती ही नहीं है,
इसके साथ ही चली जाती है.
वक्त के सागर में
ये रेत सी फिसल जाती है.
रह जाएगा खाली हाथ 
कोई भी न देगा कल तेरा साथ,
क्योंकि इन सबकी कोई 
जिन्दगी नहीं होती.
असली दौलत तो वो है
जो कभी ख़त्म ही नहीं होती है.
हुनर तो ले आ इतना -
जुबां से तेरे फूल झरें,
हाथ उठें तो मांग ले दुआ,
अमन, चैन और खुशहाली के लिए,
सुखा सके आँसू  गीली आँखों के,
उदास चेहरों पे एक मुस्कान तो ला के देख .
फिर झांक अपने ही दिल में
जो सुकून की दौलत हासिल की है,
सिर्फ इंसान बन के जिन्दगी तो गुजार 
तेरे हर ऐसे काम से मिली ये दौलत ,
तुझे इंसान और बस इंसान ही बनाती है.

शनिवार, 16 अक्टूबर 2010

नए रिश्तों की गहराई !

अब ये कैसा मानव हो गया है?
 कुछ भी शेष नहीं,
जन्म  प्रदत्त  रक्त  सम्बन्ध 
तार तार हो  रहे हैं.
न मूल्य, न मान्यताएँ  और न धारणाएं,
सब बदल रहे हैं,
या कहें
उनके स्वरूप बदल रहे हैं.
अब शायद मानव में
रक्त शेष नहीं रहा.
वो जो जन्म से मिला था,
माता पिता ने दिया था
समझदारी आते आते
पानी हो गया.
और फिर वो जो
नए रिश्तों से मिला
विशुद्ध रक्त था.
धीरे धीरे पुराने  पानी की जगह
उस रक्त ने ले ली.
और  रिश्तों की परिभाषा बदल गयी.
माँ-बाप , भाई - बहन
सबकी जगह
नए रिश्तों ने ले ली.
पुराने भाव रंजित रक्त सम्बन्ध
अपनत्व के लिए तरसने लगे.
सबके साथ यही होता है.
वृद्ध माँ-बाप
चेहरा देखते हैं
कब बेटे का मूड ठीक हो,
और अपनी गिरती नजर के लिए
नए चश्मे की  बात कहें.
बुआ के घर में शादी
कब भात पहनाने  के लिए बात करें?
नए रिश्तों से वक्त मिलेगा
तो बुआ के घर जायेंगे
नहीं तो
आप अपने तक
इन रिश्तों को सीमित रखिये.
आप ही निपटिये इन अपने रिश्तों से.

मैं इन सूखे पेड़ों  जैसे रिश्तों में 
पानी डाल कर 
फिर से हरा करने के  पक्ष में  नहीं .
मगर कहाँ से?
सब कुछ लगा चुके
तुम्हें यहाँ तक लाने में,
बनाकर सौप दिया
नए रिश्तेदारों  को
अपने लिए कुछ भी नहीं रखा.
खून अपना था,
अब वह भी नहीं रहा.
अब बस  नए रिश्तों में  गहराई है.
उनमें डूब कर ही ज्ञानचक्षु खुलते हैं.

मंगलवार, 12 अक्टूबर 2010

सपनों में घरौंदा !

हर रात को नींद में डूबकर 
सपनों में घरौंदा बनाया हमने

आती रही आंधियां  रोज रोज 
उथल पुथल  ही तो  कर गयीं

बिखरे ख़्वाबों को फिर भी
बड़े जतन  से सजाया हमने,

देखते हैं कि कौन जीतता है?
वो तोड़ने वाला खुदा या हिम्मत हमारी.

कल जब फूलों से सजी शाखें
हमारे महल में महकेंगी सुबह सुबह

मुस्कराएगा खुदा और कहेगा हमसे
तुम जीते हो क्योंकि ऐसा  तुम्हें बनाया हमने.

रविवार, 3 अक्टूबर 2010

मेरी 100वी कविता !

 पाँव रखे जिस धरती पर
परिचय मांग रही थी
लिखित कागजों में
जाति  , धर्म, कर्म औ' देश का
प्रमाण देना जरूरी था.
फिर दिया भी
किन्तु उस हद से बाहर
उस जमीं पर खड़े
कुछ लोग
जो हमारे अंश थे,
जिनकी जड़ें जुड़ी थी
अब भी अपनी धरती से
अपनी बोली, भाषा से
बाहें फैला कर मिले
लगे गले से 
फिर लगे रहे
शायद खुशबू अपनी माटी की
उन्हें लुभा रही थी.
भाषा से हम जुड़े सभी थे 
ख़ुशी में निकले जो शेर जुबां से
कहकहे लगाये,
वाह वाह करने लगे.
छू लिया गर अंतर किसी का
पलकें भींगी थी  साथ साथ 
कहाँ टूटे रिश्ते वतन से
वे भाषा भूले नहीं थे.
वहाँ मंदिरों में रामायण के दोहे
रोज पढ़े जाते है.
गीता के श्लोकों में
सार जीवन का सभी पाते हैं.
कुरान की आयतें भी 
पढ़ रहे सभी थे.
हम वतन, हम जबां अब भी हैं
वक्त ने पहुंचा दिया हो
हमें कहीं भी
कलमें हमारी रोज लिखती 
अपनी ही भाषा में,
हिंदी में बस हिंदी में,
ये कविता, गज़लें और गीतों से
महफ़िल सजाती रहती हैं
हम भारत के वासी हैं तो
हिंदी कैसे भूलेंगे.
हम जिन्दा हैं तो
हिंदी भी जिन्दा रहेगी.
एक दिन विश्व भाषा बन
चमकेगी और रचेगी एक इतिहास,
मेरी इस भविष्य वाणी का 
करना मत उपहास.
ये पहचान हमारी थी , आज है 
औ' कल भी रहेगी.
ये निकली यहाँ से
ये दुनियाँ सभी कहेगी.