शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010

माटी के दिए !

कुम्हार की चाक पर
ढलते हुए दिए
आपस में कुछ इस तरह
बात कर रहे थे-
'भाई आज हम साथ साथ
ढल रहे हैं.
पता नहीं कल बिखर कर
कहाँ कहाँ जायेंगे?
पर मेरे भाई एक वादा कर
हम कहीं भी रहें
अपने धर्म को पूरे मन से
जीवन भर निभाएंगे.'

दूसरा बोला -
'दोस्त कैसा जीवन?
एक बार जला कर
कुचल दिए जायेंगे,
माटी से बने हम
फिर माटी में मिल जायेंगे.'
'मन छोटा न करो भाई,
अरे हम तो हैं माटी के,
इस इंसान को तो देखो
बना है पञ्च तत्वों से
करता है प्रपंच
देता है धोखा
बुद्धि से भरा है
किन्तु क्या अमर है?
मिलना उसको भी माटी में है.
हम तो फिर भी रोशन करते हैं
घर दूसरों का ,
अँधेरे में रास्ते दिखा देते हैं.
दो क्षण का ऐसा जीवन
सौ सालों से अच्छा है.'
'भाई अब अफसोस नहीं 
मुझको चंद क्षणों का
रोशन जीवन पसंद है. '

14 टिप्‍पणियां:

  1. 'भाई अब अफसोस नहीं
    मुझको चंद क्षणों का
    रोशन जीवन पसंद है. '
    बिलकुल सही कहा। बहुत अच्छी लगी लगी कविता। बधाई।

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  2. दियो के माध्यम से अँधेरा फैलाते मनुष्यों को सीख, काश हर मानव इन दियो से तम मिटाने की सीख ले पता . सुन्दर भाव प्रवण कविता

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  3. अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाती कविता। आभार।

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  4. बहुत अच्छी प्रस्तुति ...प्रेरणादायक ...क्षणभंगुर जीवन किसी और के काम आसके ...

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  5. दिये के माध्‍यम से आपने नया चिंतन दिया। बधाई।

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  6. पसंद आया यह अंदाज़ ए बयान आपका. बहुत गहरी सोंच है

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  7. ज़माने के अनुभव ने बहुत कुछ सीखा दिया है रेखा जी......
    बहुत लाजवाब और उम्दा लिखा है

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  8. आपको पहले भी पढ़ा लेकिन जो बात इसमें है किसी और में नहीं। बहुत उम्‍दा कविता है।

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  9. deewali ke mauke me ek naye bimb ko aapne manushyon se tulna karke apne kavi hridya ka parichay diya........:)


    pyari rachna!!

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  10. दिये के मनोभाव, अपनी और मानवजाति के जीवन के प्रति...
    बहुत सुन्दर रचना मैम...

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  11. बहुत सुंदर सन्देश - सार्थक रचना

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  12. सही रचना है बहुत ... पर इन्सान गुरुर में रहता है और इस बात को नहीं समझ पाता .....

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  13. काश हम इंसान इसी बात से कुछ सीख ले पायें. मैं हमेशा याद रखूंगी.

    मार्गदर्शन देती रचना.

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  14. bahut achhhi kavita likhi hai.jivan do din ka ho roshni se bhara ho to sarthak hota hai.

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