शनिवार, 16 अक्टूबर 2010

नए रिश्तों की गहराई !

अब ये कैसा मानव हो गया है?
 कुछ भी शेष नहीं,
जन्म  प्रदत्त  रक्त  सम्बन्ध 
तार तार हो  रहे हैं.
न मूल्य, न मान्यताएँ  और न धारणाएं,
सब बदल रहे हैं,
या कहें
उनके स्वरूप बदल रहे हैं.
अब शायद मानव में
रक्त शेष नहीं रहा.
वो जो जन्म से मिला था,
माता पिता ने दिया था
समझदारी आते आते
पानी हो गया.
और फिर वो जो
नए रिश्तों से मिला
विशुद्ध रक्त था.
धीरे धीरे पुराने  पानी की जगह
उस रक्त ने ले ली.
और  रिश्तों की परिभाषा बदल गयी.
माँ-बाप , भाई - बहन
सबकी जगह
नए रिश्तों ने ले ली.
पुराने भाव रंजित रक्त सम्बन्ध
अपनत्व के लिए तरसने लगे.
सबके साथ यही होता है.
वृद्ध माँ-बाप
चेहरा देखते हैं
कब बेटे का मूड ठीक हो,
और अपनी गिरती नजर के लिए
नए चश्मे की  बात कहें.
बुआ के घर में शादी
कब भात पहनाने  के लिए बात करें?
नए रिश्तों से वक्त मिलेगा
तो बुआ के घर जायेंगे
नहीं तो
आप अपने तक
इन रिश्तों को सीमित रखिये.
आप ही निपटिये इन अपने रिश्तों से.

मैं इन सूखे पेड़ों  जैसे रिश्तों में 
पानी डाल कर 
फिर से हरा करने के  पक्ष में  नहीं .
मगर कहाँ से?
सब कुछ लगा चुके
तुम्हें यहाँ तक लाने में,
बनाकर सौप दिया
नए रिश्तेदारों  को
अपने लिए कुछ भी नहीं रखा.
खून अपना था,
अब वह भी नहीं रहा.
अब बस  नए रिश्तों में  गहराई है.
उनमें डूब कर ही ज्ञानचक्षु खुलते हैं.

6 टिप्‍पणियां:

  1. यह कविता रिश्तों की गहराइयों को गहरे तक समझाती है...सुन्दर रचना!

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  2. आज की यही सच्चाई है..

    टूटी ऐनक से झांकती
    धुँधलाई
    दो धबराई हुई
    बुढ़ी आँखें...
    एक तिनके की आसरे की चाह...
    उन्हें न खोने देने की मजबूरी
    डूबी इच्छाएँ--
    इस आस और मजबूरी के
    तलघर में..
    अपना सिर छुपाये
    दम तोड़ते
    न जाने कितनी बार देखी हैं..

    -कल भी
    पात्र बदलेंगे...
    तारीखें बदलेंगी
    लेकिन
    हालात!!!!
    कौन जाने!!!!


    -बहुत दूर तक भेद गई आपकी रचना...

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  3. यही सत्‍य तो है हमेशा रहा
    जिसे राम ने भी सहज था जिया।

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  4. बहुत भीतर तक उद्वेलित करती रचना। ये एक त्ल्ख़ सच्चाई है।

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  5. समय के साथ साथ रिश्ते बदल जाते हैं .... बदलते रिश्तों की गहरी समझ से लिखी रचना ...

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