गुरुवार, 17 जून 2010

जीवन वृक्ष !

नव पल्लव सा
अद्भुत बचपन
और चले
दो चार कदम तो
डाल पकी औ'
बन गया पौधा,
अपने पैरों खड़ा हुआ
फिर   तो
जीवन के चरणों सा
नित नव विकसित
किशोर, युवा सा
वृक्ष  वही सम्पूर्ण हुआ.
शाखों पे शाखें
पल्लव की उस घनी छाँव में 
अपने ही पौधों को पाला
आया माली काट ले गया
अपने से अलग कर गया 
औ' फिर 
दूर दिया था रोप उन्हें
दूर सही
थे तो वे अपने ही सामने.
देखा  उनको बढ़ते
लदते पल्लव औ' पुष्पों से
फलों से लदकर
झुक गए कंधे
हवा चली
फिर आई ऐसी आंधी
सारे पत्ते  दूर हो गए
बने ठूंठ हम
आज खड़े हैं
अपनी ही पहचान भूल कर.

पल्लव  ही थे पहचान हमारी
नाम हमारा शेष कहाँ
किस पल आये अंधड़ मौत का
औ' हम यहीं कब बिछ जाएँ.

10 टिप्‍पणियां:

  1. सारे पत्ते दूर हो गए
    बने ठूंठ हम
    आज खड़े हैं
    अपनी ही पहचान भूल
    bilkul sahi, bahut hi badhiyaa

    जवाब देंहटाएं
  2. बने ठूंठ हम
    आज खड़े हैं
    अपनी ही पहचान भूल
    बहुत ही गहरे भाव लिए है यह कविता...

    जवाब देंहटाएं
  3. यह रचना बहुत अच्छी लगी...दिल को छू गई....

    जवाब देंहटाएं
  4. रचना पसंद आई मेरी अभिव्यक्ति सफल हुई.
    आप सबको धन्यवाद.

    जवाब देंहटाएं
  5. सारे पत्ते दूर हो गए
    बने ठूंठ हम
    आज खड़े हैं
    अपनी ही पहचान भूल कर.

    जीवन के सत्य को बताती एक यथार्थ रचना...

    जवाब देंहटाएं