बुधवार, 23 जून 2010

कितना विरोधाभास !

बादलों की गर्जन
बारिश की टप टप
जंगल में नाचते मोर
गलियाँ भरी
पानी में भीगते 
बच्चे मचाते शोर,
किसानों  के चेहरे पर
खिल रही हैं मुस्कान, 
प्यासी धरती की
अब बुझेगी प्यास
हल चल सकेंगे
रोपेंगे धान. 
पर वही 
कहीं झोपड़ी में
सुमर रहे 
भगवान  को
कहीं ये पानी और बादल 
कहर बन न जाय  .
टप टप टपकती खपरैल 
उस पर पड़े पालीथीन के टुकड़े 
और शोर कर रहे थे.
उतनी तेजी से 
कई जोड़ी हाथ 
प्रार्थना कर रहे थे.
इस  बारिश को अब 
बंद कर भगवान
कहीं सिर का सहारा 
न छीन जाए.
कितना  विरोधाभास 
किसी का जल जीवन 
औ'
कहीं नरक न कर दे जीवन.
कहाँ जायेंगे?
बरसते सावन में
कहाँ सिर छुपायेंगे  .

6 टिप्‍पणियां:

  1. समाज की विसंगतियों को दर्शाती रचना ने विरोधाभासों को बहुत अच्छी तरह उजागर किया है.

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  2. विरोधाभास का सशक्त चित्रण्।

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