बचपन में
जो था
अब वो कहाँ?
न जाने
वो कहाँ खो गया?
ये सवाल उठा मन में
और फिर
वो याद आया -
घनी अमराइयों में
पेड़ों के झुरमुट
कटती थी दुपहर
न लगती थी धूप.
जेठ की दुपहरिया
निबडिया के नीचे
ठंडी हवा थी
न चुभती थी धूप.
पानी भरी नहर थी
कुँओं की जगत पर
कलशों और मटकों की
लगती थी भीड़,
पानी भरे हौजों में
किल्लोल करते पक्षी,
पशुओं की नहाती थी फौज
खाली होते बाड़े,
खाली थे नीड़,
अब
सूखे जगत हैं,
सूखी हैं नहरें,
वृक्षों के बचे हैं
बस सूखे से ठूंठ
मुसाफिर भी
थके पगों से
चले जा रहे हैं
क्योंकि
अब कट गयी शाखें
मुंडित है पेड़
पतझड़ से दिखते
वे वृक्षों के ठूंठ ,
कहाँ सांस लें
कहाँ सुस्ताने की सोचें
दरख्तों के नीचे
अब आती है धूप.