बुधवार, 28 अप्रैल 2010

वो कहाँ खो गया?

बचपन में
जो था 
अब वो कहाँ?
न  जाने
वो कहाँ खो गया?
ये सवाल उठा मन में
और फिर 
वो याद आया -
घनी अमराइयों में
पेड़ों के झुरमुट
कटती थी दुपहर
न लगती थी धूप.
जेठ की दुपहरिया
निबडिया के नीचे
ठंडी हवा थी
न चुभती थी धूप.
पानी  भरी नहर थी
कुँओं  की जगत पर
कलशों और मटकों की
लगती थी भीड़,
पानी भरे हौजों में
किल्लोल करते पक्षी,
पशुओं की नहाती थी फौज
खाली होते बाड़े,
खाली थे नीड़,
अब 
सूखे जगत हैं,
सूखी हैं नहरें,
वृक्षों के बचे हैं
बस सूखे से ठूंठ
मुसाफिर  भी
थके पगों से 
चले जा रहे हैं
क्योंकि
अब कट गयी शाखें 
मुंडित है पेड़
पतझड़ से दिखते 
वे वृक्षों के ठूंठ ,
कहाँ सांस लें
कहाँ सुस्ताने की सोचें
दरख्तों के नीचे
अब आती है धूप.

5 टिप्‍पणियां:

  1. अब
    सूखे जगत हैं,
    सूखी हैं नहरें,
    वृक्षों के बचे हैं
    बस सूखे से ठूंठ
    मुसाफिर भी
    थके पगों से
    चले जा रहे हैं
    बहुत सुन्दर, यथार्थ का साक्षात्कार कराती कविता है दी.

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  2. बचपन की बात जैसे ही होती है, सैकड़ों ख्याल सचित्र आँखों में आते हैं, पर फिर दरख्तों की धूप थका जाती है....

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  3. कहाँ सांस लें
    कहाँ सुस्ताने की सोचें
    दरख्तों के नीचे
    अब आती है धूप.
    बीते दिनों की याद कराती,एक कसक लिए हुए है यह रचना
    जावेद अख्तर जी का एक शेर याद आ गया...."यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है...आओ चलें यहाँ से उम्र भर के लिए"

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  4. कहाँ सुस्ताने की सोचें
    दरख्तों के नीचे
    अब आती है धूप.
    वाह क्या बात कह दी आपने. साया ही नही बचा

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