शनिवार, 24 अप्रैल 2010

कल और आज !



छत कि मुंडेर पर बैठी
नीचे लगे वृक्षों को 
देखकर ठंडक का
अहसास ले रही थी.
फिर नजर पड़ी 
शाखों के बीच 
घोंसले में बैठे
पक्षियों के नवजात शिशु 
बंद आँखों से 
माँ की बाट जोह रहे थे.
कब आएगी औ'
कब डालेगी दाना मुंह में
फिर अपने पंखों तले
छिपा कर सुला देगी.
एक कोमल अहसास से
मन पुलकित हो उठा,
ऐसे ही हम भी थे.
नहला  धुला कर 
माँ साथ लिटा कर सुला लेती थी.
एक कार के हॉर्न ने 
धरा पर ला दिया.
और फिर ये मन
आज पर आ गया,
सड़क  पर दौड़ती 
तेज रफ्तार जिन्दगी का वेग 
क्या अंकुश लग पायेगा?
मानव रिश्तों में क्यों नहीं?
पक्षियों सा जीवन है.
बच्चे को सोता छोड़ कर
जाते हैं पापा,
लौटने पर फिर सो जाते हैं.
बच्चों के मन में
पिता की छवि-
सिर्फ सन्डे को आते है 
बनकर  टांग चुकी है.
माँ की छवि से गहरी 
आया की छवि होती है.
क्योंकि हम जिन्दगी में
कैरियर का सुख,
औ' भौतिक सुखों के बीच
रिश्तों के सुख का
सौदा कर बैठे हैं.
ऐसा नहीं कि 
अहसास मर चुके हैं
पर अब उन 
अहसासों का स्पंदन 
जो खुद हमने जिए थे
खत्म हो चुका है.
हाँ , हमें ये सुख न था-
छुट्टी में कुल्फी,
शाम को होटल में डिनर,
पार्कों में घूमना .
पर माँ थी, पापा थे,
हम अकेले नहीं
भाई बहनों का साथ था.
बस अंग्रेजी बोलती माँ न थी,
कार चलती माँ न थी.
सबकी अपनी कीमत है
औ' 
ये तो अपनी अपनी किस्मत है.
जो हमने पाया 
वो उनको नसीब  नहीं
और जो उनके पास है
वो हमारे लिए सपना था. 
पर तब सब कितना अपना था?
अब तो बस सपना ही सपना है.
अब कौन किसी का अपना है.
अब कौन किसी का अपना है.

7 टिप्‍पणियां:

  1. ज़िन्दगी के सारे मायने बदल गए हैं , वो कागज़ की कश्ती, बारिश का पानी, वो नानी की कहानी, वो चिड़िया, तितली, बुल्बुल्वाले दिन अब कहाँ !
    बहुत ही अच्छी कविता है

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  2. sahi kaha waqt itni raftaar se nikla ki kuch samajh hi nahi aaya...ham ne to 25 varsh ki umr me hi itne badlaav dekhe hai...bachpan kisi aur tarah, kishoravastha kisi aur tarah, ab kisi aur tarah ke samaaj me jee rahe hai...

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  3. पर तब सब कितना अपना था?
    अब तो बस सपना ही सपना है.
    एहसास का सिलसिला ----
    बहुत सुन्दर रचना

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  4. पक्षियों के नवजात शिशु
    बंद आँखों से
    माँ की बाट जोह रहे थे.

    गांव याद आ गया।

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  5. सरलता और सहजता का अद्भुत सम्मिश्रण बरबस मन को आकृष्ट करता है। चूंकि कविता अनुभव पर आधारित है, इसलिए इसमें अद्भुत ताजगी है।

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  6. बहुत सुन्दर कविता है ! सच में आज का समाज कितना बदल गया है ! पहले इतनी सुख सुविधाएँ नहीं थीं, पर चैन था, अपनापन था, मन कि शांति थी ... जो अब कहीं नहीं है ...

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  7. ऐसा नहीं कि
    अहसास मर चुके हैं
    पर अब उन
    अहसासों का स्पंदन
    जो खुद हमने जिए थे
    खत्म हो चुका है.
    कहीं गहरे तक छू गयीं ये पंक्तियाँ...ऐसा क्यूँ हुआ >और क्यूँ हो रहा है....निर्मल अहसासों और भौतिक सुखों के बीच सामंजस्य बिठाना ही होगा...वरना मशीन बन जाएंगे सब....सोचने को मजबूर करती हुई कविता

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