हर किसी अप्रिय
घटना के घटित होने पर,
हम कोसते हैं
आतंकियों को.
गालियाँ हम क्यों देते हैं?
जिनको हमने देखा ही नहीं.
आतंकवाद के नाम पर
चंद लोगों को
देखते रहते हैं,
अरे ये आतंकी
कब नहीं थे?
कहाँ नहीं थे?
हर काल में रहे हैं.
हर बार किसी नए नाम से-
कभी नक्सल,
कभी माओ
कभी खालसा
कभी मस्जिद और
कभी मंदिर की आड़ में
चंद सिरफिरे
चारा पानी डाला करते हैं.
मन के किसी अंतर में
कुलबुलाते हुए
नफरत के कीड़ों को.
जरूरत आदमी को नहीं
उन नफरत के कीड़ों को
नेस्तनाबूद करने की है.
जिनसे नस्लें की नस्लें
तबाह हो रही हैं .
मर वे रहे हैं
जो बेकुसूर हैं.
राजनीति के तवे पर
रोटियां सकने वाले
कब मरे हैं?
वे ही तो इन कीड़ों को
पालते रहते हैं,
जिससे कि
उनको कोई तो मुद्दा मिले.
सत्ता के गलियारे में बैठ कर बोलने के लिए.
अगर पूछें कि
तुमने क्या किया है?
जब तुम इस कुर्सी पर काबिज थे.
नीचे उतरते ही
फिर आतंकवाद मुद्दा बन जाता है.
अरे न देश और न नागरिक
ये तो सुरक्षा के घेरे में
महफूज़ है.
मरते तो वे हैं
जो जान हथेलियों पर रखे
अपने लिए सपने बुना करते हैं.
और फिर
उनको अधूरा लिए
सब कुछ छोड़ कर
विदा हो जाते हैं.
बढ़िया...आज के हालात की सच्चाई बयान करती कविता.
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