वक्त की पतंग!
ये वक्त
पतंग सा
ऊँचे आकाश में,
चढ़ता ही जा रहा हैं।
डोर तो हाथ में है,
फिर भी
फिसलती ही जा रही है,
कोई मायने नहीं,
कि चर्खी कितनी भरी है?
जब पतंग पर काबू नहीं,
पता नहीं डोर कब छूट जाये?
पकड़ कभी मजबूत नहीं होती,
बस एक दिन तो छूट जाना है।
समय आना तो एक बहाना है।