गीत और ग़ज़ल लिखे नहीं जाते
लिख जाते हैं,
कौन सा पल,
कौन का निमिष ,
मन के दर्पण पर
छोड़ दे एक लीक
और मन
भावों की लड़ियाँ,
अक्षरों के मोती पिरोकर
शब्दों के हार
बनाने लगता है.
जब सब ख़त्म हो जाएँ
तब उठाकर देखो
कुछ न कुछ
अंतर्वेदना हो या उल्लास
एक रचना बन जाती है.
विरह हो या श्रृंगार
सब कुछ
समाकर अपने में
मन को शांत कर जाती है.
और मन एक कोरा कागज़ सा फिर
खोजने लगता है
किसी नयी रचना के लिए
कोई नया भोगा हुआ यथार्थ.
बुधवार, 2 जून 2010
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15 टिप्पणियां:
और मन एक कोरा कागज़ सा फिर
खोजने लगता है
किसी नयी रचना के लिए
कोई नया भोगा हुआ यथार्थ.
एक सत्य लिख दिया है....हर सृजन में वेदना होती है कहीं ना कहीं...और यथार्थ से जुडी हो तो मन को छू जाती है ...अच्छी अभिव्यक्ति
कुछ न कुछ
अंतर्वेदना हो या उल्लास
एक रचना बन जाती है.
विरह हो या श्रृंगार
सब कुछ
समाकर अपने में
मन को शांत कर जाती है.
और मन एक कोरा कागज़ सा फिर
खोजने लगता है
किसी नयी रचना के लिए
कोई नया भोगा हुआ यथार्थ.
कितनी सच्ची बात कह दी आपने ..शायद ऐसे ही हर रचना का जन्म होता है.बहुत अच्छा लिखा है.
और मन एक कोरा कागज़ सा फिर
खोजने लगता है
किसी नयी रचना के लिए
कोई नया भोगा हुआ यथार्थ
एक रचनाकार के मन की परतें खोल कर रख दी हैं आपने....बिलकुल सटीक रचना
एकदम सत्य है जी...
satya vachan.........pata hi nahi,kab mann shabdo ko jor kar ek kavita bana deta.......aur koshish karo to kabhi safal nahi ho pate....achchhi rachna!!
aapka wait kar raha hai mera blog:P
संगीता, शिखा , रश्मि,
ये बिल्कुल सच है कि हम ऐसे ही बैठ जाएँ कलम लेकर तो घंटों नहीं लिख पाते लेकिन कहीं कुछ चुभा तो फिर न हाथ रुकते हैं और न कलम.
बहुत सही लिखा है , गीत ग़ज़ल लिखे नहीं जाते खुद ब खुद उतर आते हैं कागज़ पर ...
bilkul sach...vichaaron ke badal ghumadte hain...fir kuch boondein kagaz pe barasti hai...sundar rachna
touching
गीत और ग़ज़ल खुद शक्ल ले लेते हैं....वाह
बिल्कुल सही कहा...लिखा नहीं जाता, लिख जाता है!!
बहुत सुन्दर रचना.
antrvedna se hi srjan hota hai .
sundar abhivykti.
दिल के दर्द ने साहित्य को बहुत कुछ दिया है ,,जो अतुलनीय है ,,हमारा भी आधार यही है :(
satya wachan
सृजन का राज बता दिया आपने तो, बहुत ही सुन्दर!
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