बन सको तो
दीपक की मानिंद बनो ,
जग रोशन कर जाता है ,
खुद जल कर ही सही ,
उसका नाम
बन चुका है
उजाले का पर्याय।
कितने दीप
बचते हैं जहाँ में ?
फिर भी दीप नाम
अमर ही तो है।
कौन जानता है
माटी , बाती और तेल को,
कुछ भी तो नहीं है
सब का संयोग ही कहें
या कहें संगठन कहें
मिलकर ही सही
कोई शिकवा नहीं
किसी को किसी से
एक कुनबा भी नहीं
फिर भी
दीपक एक है।
बयां तो
हम ही करते हैं ,
फिर भी
हम खुद दीप तो क्या
मिलकर जुगनू जैसे
काम नहीं कर पाते हैं।
सृष्टि की सर्वोत्कृष्ट रचना
निर्माण में नहीं
आज 'हम ' नहीं
मैं की तलाश में
खुद के अस्तित्व को
अमर करने में जुटी है।
फिर भी
ये नहीं समझ रहा
कि
जो अमर हुए
वे दीप नहीं
आकाशदीप बन कर
जग रोशन कर रहे हैं।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30-06-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2389 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बहुत सुंदर
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