बुधवार, 16 सितंबर 2015

मैं हिन्दी हूँ !

अपनी इस कविता को मैंने जानबूझ कर हिंदी दिवस पर नहीं डाला क्योंकि हिंदी हमारे लिए सिर्फ एक दिन अलख जगा कर चिल्लाने की चीज नहीं है।  उसके लिए प्रयागत्नशील हमारे साथियों के प्रयासों में एक निवेदन ये भी समझा जाय।

क्या हम गुनहगार नहीं ?
मुख से 
जो फूटा था 
शब्द प्रथम - वो 'माँ' ही था ,
मदर , मॉम या  मम्मी नहीं। 
अर्थ बहुत हों 
भाव एक हो 
फिर भी क्यों?
अपनी माँ मांगे 
घर में हक़ अपना 
औ'
अपने ही बेटे 
आवाज उसकी सुन न पाएं। 
कानों में ॐ 
जिव्हा पर ॐ 
किस भाषा में लिखा गया था ?
आज वही 
हम बोलने से कतराते हैं ,
बच्चे बोलें तो शर्मिंदगी लगती है। 
अपनी संस्कृति से 
अब परायी प्रिय लगती है। 
शर्म उन्हें नहीं आती है ,
जो जन्मे इस धरती पर 
पैरोकार बने विदेशी भाषा के 
शान से बोलते हैं। 
उनके अपने सुनने वाले 
सिर धुनते हैं। 
नाज तो उन पर है ,
जो विदेशी जमीन पर 
हिंदी का परचम लहर रहे हैं। 
सिखा रहे हैं 
और विश्व में एक महत्वपूर्ण भाषा 
बनाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। 
किस तरह अपने प्रयासों से ,
हम जिसे देश में 
स्वीकार नहीं कर पाये 
राजभाषा तक। 
हिंदी भी अपने हक़ के लिए 
साल में एकबार 
अखबारों ,
जलसों , प्रतियोगिताओं में 
जोर शोर से 
अपनी ही धरती पर 
अपने बारे में 
अपनी महिमा सुनती है। 
फिर पूरे साल 
दफ्तरों में , अदालतों में 
सिसकती रहती है।

 
 

4 टिप्‍पणियां:

  1. अलग दिन इसके लिए कहना अधिक उचित है, एक एक शब्द आग्नेय हैं … किसने छीन लिया हमारा यह गौरव !

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन धार्मिक कट्टरता की तरफ बढ़ता समाज : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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  3. दोषी हम हिन्दीवाले ही हैं -अपना स्वाभिमान,संस्कार और परंपरा सबसे वंचित होकर क्या रह जायेंगे?काश ,अब भी चेत जायें !

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  4. रेखाजी,
    आपने माँ शब्द का प्रयोग कर इसे भावनाओं से भरने की कोशिश की है. लगता है कि आपको याद नहीं रहा कि माँ शब्द कई भाषाओं में है और अलग अलग मतृभाषा के लोग अपनी भाषा में कहते है. आपकी रचना से लगा कि आप हिंदी को हिंदुस्तानियों की मातृभाषा मान बैठी हैं. कृपया स्वीकारें. कोई अपनी मातृभाषा तो बदल नहीं सकता. उसे वैसे ही रहने दें. हाँ हिंदी के प्रति सबकी श्रद्धा वाँछनीय है...पर मातृभाषा के रूप में नहीं. अन्यथा कविता बहुत ही सुंदर व तर्कसंगत है.

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