गुरुवार, 27 जून 2013

कदमों तले धरा !




कभी सोचा है 
शायद नहीं ,
धरा जो जननी है ,
धरा जो पालक है ,
अपनी ही उपज के लिए 
मूक बनी ,
धैर्य धारण किये ,
सब कुछ झेलती रही .
धरा रहती है भले ही 
सबके कदमों के नीचे 
पर ये तो नहीं 
कि वो सबसे कमजोर है .
हमारे कदमों तले ,
ऊँचे पर्वतों तले,
सरिता और वनों तले ,
गर्वित तो ऊपर वाले हैं .
पर्वत गर्व करें अपनी उंचाई का 
मनुज गर्व करे सामर्थ्य का ,
उसके गर्भ से खींच कर तत्व सारे 
खोखला कर दिया ,
लेकिन ये भूल गए 
धरा के बिना खड़े नहीं रह पायेंगे 
खोखले गर्भ से 
कब तक पालेगी तुम्हें?
कांपती है जब वह  क्रोध से 
धराशायी होते वही हैं 
जो धरा को पैरों तले मानते हैं .

पर्वतों की श्रृंखला भी 
पत्थरों में टूट टूट कर 
शरण वही पाते हैं .
औ'
विशाल हृदया धरा भी 
टूटते गर्व से 
बिखरे पर्वतों को शरण में 
अपने लेती रही है .
वेग से आती धाराएं भी 
धरा की गोद में 
शांत हो फैल जाती है,
भूल जाती हैं 
वे वेग अपना ,
माँ  के आँचल में समां जाती है .
वो सबके कदमों तले रहकर भी 
अपने कदमों में झुका  देती है 
और दिखा देती है 
वो जीवन देती है तो 
जीवन लेती भी है . 

13 टिप्‍पणियां:

  1. बिलकुल सही कहा आपने वो जीवन देती है तो वही जीवन ले भी सकती है।
    मगर हम को कभी यह ज़रा सी बात समझ ही नहीं आती है फिर जब कोई ऐसी आपदा आती है, तो हम बजाए अपनी करनी पर पछतावे के साथ सोचने के उल्टा ईश्वर से लेकर प्रशासन तक को कोसते रहते है।
    मगर कभी यह प्रण नहीं ले पाते की फिर कभी प्रकृति के साथ कोई खिलवाड़ नहीं करेंगे न ऑरोन को करने देंगे।

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  2. जो उससे और उसके कुटुम्ब से द्रोह करता है उसे कब तक स्वीकारे धरा -पाप को निर्मूल करना भी ज़रूरी है!

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  3. बहुत सुंदर प्रस्तुति ! बड़े गहन चिंतन की उपज है यह रचना ! बहुत खूब !

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  4. धारा सब सहती है तो कभी सीख देने के लिए कठोर कदम भी उठाती है ... सुंदर रचना

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  5. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज शुक्रवार (28-06-2013) को भूले ना एहसान, शहीदों नमन नमस्ते - चर्चा मंच 1289 में "मयंक का कोना" पर भी है!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  6. सही सटीक बातें । वस्तुस्थिति का सच्चा वर्णन कर दिया आपने ।

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  7. यथार्थ-
    सुन्दर प्रस्तुति आदरणीया-

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  8. बहुत खूब . बहुत सुंदर प्रस्तुति.

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  9. सच है ये धारा जननी है और जननी का मान करना जरूरी है ... उससे लिया है तो उसकू देना सीखना भी जरूरी है ... भावपूर्ण रचना ...

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  10. विशाल हृदया धरा भी
    टूटते गर्व से
    बिखरे पर्वतों को शरण में
    अपने लेती रही है .
    वेग से आती धाराएं भी
    धरा की गोद में
    शांत हो फैल जाती है,

    सुन्दर प्रस्तुति ,सच्चा वर्णन ...

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