गुरुवार, 14 मार्च 2013

रुको सोचो और बढ़ो !

घर की 
इमारत तो बनेगी 
तभी 
जब 
नींव के पत्थर 
संस्कारों के गारे से 
जोड़ जोड़ कर 
उसे पुख्ता करने की बात 
 हमारे जेहन में होगी .
गर हाथ हमारे 
कांपने लगे 
औरों के डर से 
आकार ही न दे पाए,
तो वो फिर टूटकर 
बिखर जाने का 
एक अनदेखा भय 
मन में सदा ही 
 करवटें बदलता रहेगा .
पहले हम दृढ हों ,
मन से , विचारों से 
ताकि बिखरती सन्तति को 

 अपने दृढ विचारों 
और दृढ संकल्पों का 
वह स्वरूप दिखा सकें 
जिसकी जरूरत 
आज सम्पूर्ण 
मानव जाति  को है. 
उनका भटकाव 
उनके बहकते कदम 
उनकी नहीं 
हमारी कमी को दर्शाते हैं 
कुछ कहीं तो है ऐसा 
हम उन्हें समझ नहीं पाए 
या फिर उन्हें समझा नहीं पाए .
सदियों से
बड़ों ने ही दिशा दी है 
फिर क्यों ?
हम खुद दिग्भ्रमित से 
उनको दिशा नहीं दे पाए ,
कहीं हम भी तो 
जाने अनजाने में 
दिग्भ्रष्ट तो नहीं हो गए .
उसका प्रतिफल 
हम देख रहे हों . 
अगर ऐसा ही है 
तो फिर थामो कदम अपने 
अभी देर नहीं हुई ,
जो चलना सीख रहे हैं 
उन्हें संस्कारों की 
डोर थमा दें और फिर 
अपने आदर्शों की तरह 
इस समाज को नवरूप दें . 

10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर और प्रेरक पोस्ट!
    साझा करने के लिए आभार!

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
    --
    करनी तो भरनी पड़े, कर के क्यों पछताय।
    बोलो कंटक पेड़ पे, आम कहाँ से आय।।
    --
    आपकी इस पोस्ट का लिंक कल 15-03-2013 के चर्चा मंच पर लगाया गया है!
    सूचनार्थ...सादर!

    जवाब देंहटाएं


  3. सुन्दर प्रस्तुति है आदरेया-

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सही कहा है आपने .सार्थक प्रस्तुति आभार ''शालिनी''करवाए रु-ब-रु नर को उसका अक्स दिखाकर . .महिलाओं के लिए एक नयी सौगात WOMAN ABOUT MAN

    जवाब देंहटाएं
  5. सार्थक सन्देश सुंदर कविता के माध्यम से. सभी को ऐसे ही विचार अपनाने चाहिये.

    जवाब देंहटाएं
  6. प्रेरणादाई सुन्दर प्रस्तुति,बधाई!

    जवाब देंहटाएं
  7. आज के जीवन में यही तो कमी है. सुन्संदरस्कारों से ही व्यक्तित्व संवर सकता है !

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत सुंदर और सटीक बात कहती सुंदर रचना

    जवाब देंहटाएं