कलम
जब उगलती है आग
तो बड़े बड़े
जलने लगते है.
फिर शुरू होती है
कलम और रसूख की जंग.
वे चल देते हें
मिटाने को उसे
जो कलम
सिर्फ और सिर्फ
लिखना जानती है.
सच लिखा तो
तोड़ दिया उसको
अगर किया
प्रशस्ति गान तो
नवाजा गया उसे
झूटी कसीदाकारी पर.
अब कोई धर्म
इससे नहीं जुड़ा है.
कोई मर्यादा इसमें नहीं बची.
लिखो ऐसा
जो बिक जाए
मालामाल करने वाले
उसको लिखने के पहले ही
खरीद लें
या कलम ही बेच दी .
वह लिखो
जो खरीदार कहे.
फिर काहे का धर्म
और कैसा धर्म ?
कैसी रचनाधर्मिता ?
उनकी क़ुरबानी व्यर्थ हुई
जो लिखते रहे
अन्याय और अनाचार के खिलाफ
ख़त्म कर दिए गए.
आज लिखो
और जिओ शान से,
कलम वह तलवार है
जो जिन्दा को मार देता है
नैतिक पतन
मृत्यु से कम तो नहीं.
वे मुँह छिपा कर
खुद को ख़त्म कर देते हें.
अब कलम
हत्यारी भी हो चुकी है.
उसका धर्म बदल गया,
उसकी स्याही
अब नीली या काली नहीं
लाल हो चुकी है.
किसी के खून से लाल.
किसी की जान से लाल.
कलम और .... आपकी पारखी सोच
जवाब देंहटाएंबहुत खूब .... यह धार बनी रहे
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंलिखो ऐसा
जवाब देंहटाएंजो बिक जाए
मालामाल करने वाले
उसको लिखने के पहले ही
खरीद लें
सटीक व्यंग्य
सादर
बेहद सशक्त भाव ...
जवाब देंहटाएं्शानदार व्यंग्यात्मक रचना
जवाब देंहटाएंbahut badhiya
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रचना !
जवाब देंहटाएंसादर !!!