सोमवार, 16 अप्रैल 2012

बाती का दर्द !

दीप जलाओ 
रोशनी फैलेगी 
तो
बाती रो पड़ी।
पूछा बाती से
रोई तू क्यों ऐसे?
स्त्रीलिंग हूँ न ,
क्या पता कौन सा
विपरीत लिंग मुझे बुझा दे ?
पर तेरे बिना तो
दीप कुछ भी नहीं,
उससे क्या
जब सारी बातियाँ बुझ जायेंगी
धरा घिर जाएगी अँधेरे में
फिर लकड़ियों
अरे ये भी स्त्रीलिंग
फिर आग
मैं फिर भूली
ये आग भी तो वही है.
फिर क्या होगा?
कुछ भी नहीं
ये पुल्लिंग की 
आखिरी खेप होगी।
फिर धरा पर
कोई सृष्टि न होगी,
क्योंकि गर्भ ही न होगा
तो कौन गर्भवती और कैसा प्रजनन ?
इसलिए
अब तैयार रहो
अपने ही किये की
सजा पाने को.
हर वो स्त्रीलिंग
जो ख़त्म कर रहे हो.
यही शाप दे रही है
तुम भविष्य में संतति के लिए तरसो.

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत लाजवाब रेखा जी,
    यह सन्देश सभी के पास पहुंचने चाहिए, सबो को पढ़ना और समझकर गुनना चाहिए, मैं आशा करता हूँ इस लोग पढेंगे

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  2. काश कि आपकी बात का मर्म किसी को समझ आए!


    सादर

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  3. बहुत गहन भाव लिए हुये ... रचना के मर्म तक पहुँचें यही कामना है

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  4. बिल्कुल सटीक बात कही है ………शानदार रचना बेहद प्रशंसनीय

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  5. सार्थक अभिव्यक्ति।
    जिसकी पीर, वही पहचाने।

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