जीवन में बिखरे धूप के टुकड़े और बादल कि छाँव के तले खुली और बंद आँखों से बहुत कुछ देखा , अंतर के पटल पर कुछ अंकित हो गया और फिर वही शब्दों में ढल कर कागज़ के पन्नों पर. हर शब्द भोगे हुए यथार्थ कीकहानी का अंश है फिर वह अपना , उनका और सबका ही यथार्थ एक कविता में रच बस गया.
बुधवार, 8 दिसंबर 2010
अमन के दुश्मन !
पौध अमन की इस बगिया में
हम रोपने में लगे हैं,
सबने मिल कर
हजारों पौध तैयार कीं.
कोई जानवर इसको रौंदे न -
खाने की जुर्रत न करे -
अपने नापाक इरादों से कुचले न
रोप कर घेरा और बाड़ लगाई.
फिर अचानक एक शाम
दहशतगर्दों ने अपने
नापाक इरादों से
सिर उठाया औ'
हमारी पौध पर
तेज़ाब उड़ेल दिया,
जला कर चले गए.
धृष्टता ऐसी
सीना ठोक कर कह रहे है,
'हमने जलाई है,
तुम्हारी फसल हम
बर्बाद कर देंगे.'
अमन की जड़ें क्या इतनी कमजोर है?
हम पहचान कर भी -
इनसे अनजान क्यों बनते हैं?
ऐसा नहीं है
वे हमारे बीच रहते हैं,
वे हमारे ही घरों में रहते हैं,
फिर क्यों इन मौत के सौदागरों को
हम पहचान नहीं पाते हैं.
इनके चेहरे पर पैबस्त मुखौटे
इतने गहरे हैं कि
इनके असली चेहरे हम
पहचान नहीं पाते हैं.
हमें अपनी आँखों पर
एक चश्मा लगाना होगा.
हमारे बीच में पलने वाले
इन हैवानों को
अलग करना होगा.
क्योंकि ये
किसी के नहीं होते
हमारे आपके क्या होंगे?
इनका कोई वतन, जमीर या फिर मजहब नहीं होता.
जिसकी आड़ में ये बीज बो रहे हैं,
उसमें भी इनके लिए कोई
जगह मुस्तकिल नहीं है.
ये सौदागर है और मौत बेचते हैं
अपने लिए तो खरीद कर पहले ही रखे हैं.
पता नहीं कौन सा लम्हा
इनकी जिन्दगी की धरोहर होगा.
फिर उस लाश को लेने वाला भी कोई न होगा. के दुश्मन
rekha di!!kab tak aakhir kab tak....!!
जवाब देंहटाएंaur kb tak aman ki baaat kar ke...in kamino ke samne apne desh ko lut te dekhte rahenge...!!!
ये सौदागर है और मौत बेचते हैं
अपने लिए तो खरीद कर पहले ही रखे हैं.
पता नहीं कौन सा लम्हा
इनकी जिन्दगी की धरोहर होगा.
फिर उस लाश को लेने वाला भी कोई न होगा. के दुश्मन
bahut khub di..
अमन में खलल डालने वाले हमारे बीच में ही है और जरुरत है हमे उन्हें पहचानने की . हर बार वो ऐसा कर जाते है और हम हाथ पर हाथ धरे रह जाते है . जानबूझकर माखी निगलने वाली बात है . कवित अमे निहित आक्रोश अच्छा लगा .
जवाब देंहटाएंइन हैवानों को
जवाब देंहटाएंअलग करना होगा.
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बहुत सही सन्देश दिया आपने अपनी रचना में!
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अमन की राह में हैवानियत हमेशा आड़े आती रही है!
त्रासद है ..आपका आक्रोश दिखाई देता है कविता में.
जवाब देंहटाएंमार्मिक अभिव्यक्ति.
जब हम उस कबूतर की तरह आँख बन्द करके रहेंगे जो बिल्ली को नहीं देख रहा था तो ऐसा ही होगा। दुनिया के सारे कुचक्रों से सावधान तो रहना ही पड़ेगा। केवल वोटों की राजनीति से देश नहीं चलेगा।
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक रचना ...हाल यह है की दुश्मन की कोई पहचान ही नहीं है ...चिंताजनक स्थिति है ..
जवाब देंहटाएंवे हमारे बीच रहते हैं,
जवाब देंहटाएंवे हमारे ही घरों में रहते हैं,
फिर क्यों इन मौत के सौदागरों को
हम पहचान नहीं पाते हैं
आपकी चिंता वाजिब है,ये किसी भी तरह से मुरव्वत के हक़दार नहीं हैं.काश लोग इनसे सख्ती से पेश आयें
जब तक हम जगारुक नही होंगे, अपना अपना स्वार्थ नही छोडेगे, तब तक यही सब होता रहेगा, हम ही हे जो किसी को गलत करता देख कर अपनी जान बचाने के लिये चुप हो जाते हे, बाकी पुलिस निकम्मी उस पर हमारे नेता वोट बेंक के पीछे देश को ओर जनता को दांव पर लगा रहे हे, सब गडबड हे जी....इन सोदागरो मे हमारे नेता भी जरुर हिस्सेदार हे, वर्ना इअतने बडे देश मै कोई दुशमन की चिडिया भी पर नही मार सकती.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
hum dushman aur dost ka fark jaan bhi len to kya hamari aankhon par jabardasti ka chashma laga kar dushman ko dost bata kar desh chala rahe hain.hum sirf kab tak bol sakte bus..........
जवाब देंहटाएंअपने देश का हाल सच में आज यही है ... अगर नहीं संभले तो उजाड़ जायगी ये बगिया ...
जवाब देंहटाएंजरुरत आँख और कान खुले रखने की है...दोष नज़र का नहीं लापरवाही का है.
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति.
रेखा जी,
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा ,
"इनका कोई वतन, जमीर या फिर मजहब नहीं होता."
पूरी रचना सोचने पर विवश करती है !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ