शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

नव वर्ष के संकल्प !


बीते दशकों इसी तरह
नव वर्ष के आते जाते , 
इस वर्ष कुछ ऐसा मनाएं,
संकल्पों के दशक बना लें.

दीप ऐसा एक मन में जला लें,
कलुष मिटाकर धवल बना लें.

दृढ स्तम्भ बने हम ऐसा 
थाम जिसे निर्बल पल जाएँ.

ज्योति प्रेम की ऐसे चमके,
कटुता की कालिख मिट जाए.

एक धर्म की बात करें हम,
मानव ही मानव हो जिसमें.

अमन-चैन औ' खुशहाली में,
हर्षित हो जीवन दिन पर दिन.

बाँट सकें दुःख दर्द किसी का,
आँखों की हम नमी  सुखा दें.

भटक गए जो कदम बहक कर,
उनको सही मार्ग दिखला दें.

सम्मान सभी को दें हम इतना,
हम भी इसके अधिकारी बन जाएँ.

समता का भाव रहे मन में,
मित्र शत्रु के भेद  भुला दें.

चाहे जितने शूल हों पथ पर,
राहों को हम सुगम बनायें.

चाहूं बस इतना ईश्वर से भी,
इन संकल्पों को पूरा कर पायें.


२३ मार्च पर शहीदों को नमन !

मुझे लिखते देख मेरी सहेली बोली - क्या कर rahi ho? उसे bataya ki aaj शहीद दिवस है कुछ लिखना चाह रही हूँ। तुरंत वह बोली - साल में वही दिन तो आते हैं और तुम हर बार वही लिख कर डालती रहती हो। इससे क्या फायदा? कुछ नया हो तो लिखो, मुझे मजा नहीं आता । मैं उसे कैसे समझाती कि मैं जो लिख रही हूँ वह एक जरूरी चीज है लेकिन गद्य भूल कर लिख बैठी ये पंक्तियाँ --

इतिहास बदल नहीं करता है,
वे तारीखें जो लिखी हैं इसमें,
उनकी इबारत पत्थर पर लिखी है ,
' उस पत्थर पर हमारी
आज़ादी कि इमारत खड़ी है
हम दुहराते हैं उन तारीखों को जरूर
जिन्हें इतिहास में मील के पत्थर भी कहा करते हैं,
घटनाएँ कुछ ऐसी घट जाती हैं,
जो तारीखों का वजन बढ़ा देती हैं।
इतिहास के पन्नों पर वे ही दिन
मजबूर कर देते हैं मानव और मानस को
फिर एक बार उस इबारत को दुहरा लें
शहीद वही, शहादत वही, इतिहास भी वही,
लेकिन इस तारीख के जिक्र पर,
सर झुक ही जाता है इज्जत से
क्योंकि
हमारा जमीर इनको याद करते ही
मजबूर कर देता है नमन करने को
मजबूर कर देता है नमन करने को

मेरी आज २३ मार्च को उनके बलिदान दिवस पर अमर शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को श्रद्धांजलि।

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

अमन के दुश्मन !


पौध अमन की इस बगिया में
हम रोपने में लगे हैं,
सबने मिल कर
हजारों पौध तैयार कीं.
कोई जानवर इसको रौंदे न -
खाने की जुर्रत न करे -
अपने नापाक इरादों से कुचले न
रोप कर घेरा और बाड़ लगाई.
फिर अचानक एक शाम
दहशतगर्दों ने अपने
नापाक इरादों से
सिर उठाया औ'
हमारी पौध पर
तेज़ाब उड़ेल दिया,
जला कर चले गए.
धृष्टता   ऐसी
सीना ठोक कर कह रहे है,
'हमने जलाई  है,
तुम्हारी फसल हम
बर्बाद कर देंगे.'
अमन की जड़ें क्या इतनी कमजोर है?
हम पहचान कर भी -
इनसे अनजान क्यों बनते हैं?
ऐसा नहीं है
वे हमारे बीच रहते हैं,
वे हमारे ही घरों में रहते हैं,
फिर क्यों इन मौत के सौदागरों को
हम पहचान नहीं पाते हैं.
इनके चेहरे पर पैबस्त मुखौटे
इतने गहरे हैं कि
इनके असली चेहरे हम
पहचान नहीं पाते हैं.
हमें अपनी आँखों पर
एक चश्मा लगाना होगा.
हमारे बीच में पलने वाले
इन हैवानों को
अलग करना होगा.
क्योंकि ये
किसी के नहीं होते
हमारे आपके क्या होंगे?
इनका कोई वतन, जमीर या फिर मजहब नहीं होता.
जिसकी आड़ में ये बीज बो रहे हैं,
उसमें भी इनके लिए कोई
जगह मुस्तकिल नहीं है.
ये सौदागर है और मौत बेचते हैं
अपने लिए तो खरीद कर पहले ही रखे हैं.
पता नहीं कौन सा लम्हा
इनकी जिन्दगी की धरोहर होगा.
फिर उस लाश को लेने वाला भी कोई न होगा. के दुश्मन

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

तार तार शब्दों की गरिमा !

पूजा, दिव्या, वंदना, अर्चना, नमिता
तार तार कर दिया
इन शब्दों की गरिमा को,
खून के आंसूं रो रहे हैं
ये मानव जीवन के नमित  शब्द .
अरे छोड़ा तो नहीं
सीता, राधा, गिरिजा और सरस्वती को भी
जिन्हें हम घर और मंदिर में
प्रतिष्टित कर पूजते हैं.
ऐसे ही नहीं
रो रहा है हर शब्द,
मानव के नाम पर कलंक
इन विकृत मानसिकता वालों को
उनमें बेटी नजर नहीं आई,
कन्या नजर नहीं आई,
देवी नजर नहीं आई,
इन तीनों के ही रूप थीं -
वे मासूम बच्चियां.
अपनी माँ के आँचल से
अभी ही बाहर निकली थीं.
अरे निराधमों, दुराचारिओं
ये बताओ
क्या अपनी बेटी की भी
यही दुर्दशा करने की
हिम्मत और कुब्बत है तुममें
फिर जाओ और उन्हें भी
इसी तरह से अपनी अमानुषिक  मनोवृत्ति का
शिकार बनाओ और
छोड़ दो गला घोंट कर,
किसी का सिर तोड़ दो,
किसी को जिन्दा जला  दो,
बहुत से विकल्प हैं तुम्हारे आगे.
अरे शर्म नहीं आई,
कल तक बेटी बेटी कहकर
सिर पर हाथ फिराते  रहे,
टाफी, चाकलेट या आइसक्रीम देकर
कौन सा प्यार जता रहे थे?
ये वे नहीं जानती थीं.
इसके पीछे तुम्हारी मंशा क्या है?
वे तो पिता की तरह समझती रहीं,
और तुमने मौका देखकर
उनको रौंदकर मार दिया.
अब हर आदमी वहशी है,
अपनी बेटियों को क्या सिर्फ आँचल से विदा कर दें
या फिर पैदा होते ही,
फिर से गला घोंटने के इतिहास को दुहराने लगें.
अरे वहशियों इसका जवाब तुम्हें ही देना होगा.
नहीं तो खुद ही कालिख पोत कर
कहीं फाँसी पर लटक जाओ.
अगर सामने मानवता के आये
तो पत्थरों से मार दिए जाओगे.
लगता है कि इतिहास
फिर दुहराया जानेवाला है.
बीता कल फिर से आनेवाला है.

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

अनुत्तरित प्रश्न !


उस वक्त बीच राह में
तुमने साथ छोड़ा था,
और मैं बात जोहती रही
सालों गुजर गए
फिर हार कर
अपनी राहें खुदबखुद तलाश कर
हिम्मत बटोर कर
आगे चल पड़ी.
फिर भी मेरे जेहन में
कुछ अनुत्तरित प्रश्न
आज भी भटक रहे हैं.
मैंने उन्हें संजो कर रखा है.
सोचती रही जिन्दगी भर,
कभी कहीं किसी मोड़ पर
स्वरचित वह नाम,
तुम्हारा चेहरा मिल जाएगा तो -
वही प्रश्न लेकर पूछूंगी
आख़िर क्यों?
आख़िर क्यों?
साथ छोड़ा , मुँह मोड़ा,
बता तो देते
रास्ते नहीं रोकती
सबकी अपनी राहें होती हैं,
बताकर छोड़ते तो
प्रश्नों के बोझ को
यूँ ही ढ़ोती न रहती,
सोच के यूँ ही
तुम्हें खोजती न रहती.
कब मिलोगे?
या फिर इन प्रश्नों का बोझ
जीवन भर ढोते ढोते मैं
अपने सफर का अंत कर दूँगी.