सोमवार, 15 नवंबर 2010

आत्मा का शाप !


नदी के किनारे 
लाशें  मछलियों की
करुण कहानी 
सुनाती है अपनी.
यही हैं मानव 
करते हैं विषैला 
ये जीवन हमारा.
घुट घुट निकलता 
जब दम हमारा
टूटती हुई साँसे हमारी
बहुत शाप देती हैं इनको  ,
कहाँ तक बचोगे?
इसी जल के कारण 
तुम्हें में से कितने 
अपंग हो रहे हैं,
रोगों से लड़ते ,
घिसट घिसट कर 
जीवन से अपने तंग हो रहे हैं.
हम तो तड़प कर
जहाँ से गए हैं,
तुम तड़प तड़प कर
जीते रहोगे.
सिन्धु है विषैला,
सरिता भी विष भरी है,
कूपों में जीवन 
लाओगे कहाँ से?
कर्मों से तुम्हारे
प्रकृति भी हारी है,
खुद के लिए जीवन
खरीदोगे कहाँ से?
खनकते हुए सिक्के तो होंगे,
लेकिन वे जीवन 
इस बेजान धरा पर
लाकर के तुमको देंगे कहाँ से?
उजाडा है आँचल तुमने 
धरा का ,

जीवन था इस पर 
बेजुबां प्राणियों का भी
चीखे बहुत थे
मगर ये इंसानों 
कानों पे तुम्हारे हैडफोन लगे थे,
संगीत में उसके 
चीखें हमारी सुनी ही कहाँ थी? 
अपने ही हाथों से 
करते हो पाप तुम
मुक्ति उनसे मिलेगी कहाँ से?
उन मौन आत्माओं का शाप
सुना तो नहीं है,
इसका खामियाजा 
तुम्ही तो भरोगे.
उजाड़ कर वंश हमारे
अपने वंश की 
सलामती चाहते हो.
स्वयं भू हो तुम
इस अखंड धरा के,
मत भूलो
तुमसे भी कोई बड़ा बैठा वहाँ है.
इस प्रकृति से खेल कर
अमन खरीदोगे कहाँ से?
सब कुछ पैसे से मिलता नहीं है,
बना कर खुद तुम पानी
धरा के गर्भ में 
कहाँ से भरोगे?

अट्टालिकाओं के छत  पर 
बैठ निहारोगे पत्थर ,
क्षुधा  मिटाने को कुछ तो चाहिए
मगर फसलें तुम लाओगे कहाँ से?
चाहे रच डालो  इतिहास तुम हजारों
समुद्र, वृक्ष, सरिता के विनाशक 
                                                         कीमत तो इसकी चुकानी पड़ेगी.



5 टिप्‍पणियां:

  1. यह कविता लोक जीवन के यथार्थ के चित्रण के कारण महत्वपूर्ण है बल्कि मनुष्यता बोध को उच्चभाव कक्षा में प्रतिष्ठित करने के कारण भी बड़ी हो गई ऐ।

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  2. सटीक और विचारणीय प्रस्तुति ...इंसान खुद ही विनाश को आमंत्रित कर रहा है प्रकृति से खिलवाड़ करके ...

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  3. वाह , क्या अभिव्यक्ति है . प्रकृति के साथ खिलवाड़ करके हम किस दिशा में जा रहे है , ये छुपा नहीं है .. सूखती नदिया , गगन चुम्बी इमारते , गहराता पर्यावरण प्रदुषण . देखते है कब तक इस मानवता का नामो निशान रहता है इस धरा पर.

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  4. Manoj sir ne sach kaha........:)

    Rekha di aapke abhivyakti ke kayal hain, sahitya ke har vidha me aap jaandaar ho.....:),,,,,,chahe kavita ho, kahani ho ya sansmaran ya kisi vishay pe aalekh.....

    U r superb!!

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  5. 5/10

    पर्यवरण चेतना पर बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.
    हम प्रगति कर रहे हैं, लेकिन किस कीमत पर ?
    कब चेतेंगे ....शायद जब चेतने को कुछ न बचेगा.

    कविता के रूप में बात जमी नहीं. गद्य के स्वर हैं इसलिए गद्य लेखन में होता तो सही था.

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