गुरुवार, 29 जुलाई 2010

कलम का धर्म !

कलम कब रूकती है
वह तो कुछ न कुछ
रचेगी ही,
किसी का दर्द
लिखा तो खुद ही रो दी.
बयान खुशियाँ  की
तो उसके संग
खुद भी मुस्करा ली.
प्रकृति के संग
उलझ गयी तो
चाँद से तारों तक
नदी से पहाड़ों तक
धरती से आकाश तक
सब में घुल मिल ली.
बगावत की आंधी आई
तो शोले उगलने लगी
हवा देने लगी
सोयी हुई इंसानियत को
जागो और इन्साफ के लिए लड़ो.
खुद शब्दों से लड़ ली.
ख़ामोशी को भी
बयान कर जाती है
खामोश से लफ्जों में
और फिर खामोश हो ली.
ये कलम कब रुकती है
कुछ भी सही
मेरा तेरा सबका ही रचती है.
छू जाती है मन
सब में कहीं न कहीं
अपना ही अक्श देख ली.

4 टिप्‍पणियां:

  1. रूकेगी कैसे और क्यूँ ? फिर ये एहसास हम तक कैसे आयेंगे ....

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  2. ये कलम कब रुकती है
    कुछ भी सही
    मेरा तेरा सबका ही रचती है.
    छू जाती है मन
    सब में कहीं न कहीं
    अपना ही अक्श देख ली.
    बिलकुल सत्य..कलम ही तो जरिया है, अपने उसके सबके दुख-सुख उकेरने का

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  3. कलम को रुकना भी नहीं चाहिए ....बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

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