मृग मरीचिका सा
बाहर जाने का सुख
रंगीन सपनों की चमक
स्वर्ग सा जीवन
जीने की ललक
उड़ा ले गयी
उसे दूर बहुत दूर
अपनी जमीन से.
फिर दूसरी धरती पर
रखते ही कदम
फँस गए दल दल में
न जमीं अपनी
औ
न आसमां अपना
रोने की आवाज भी
कोई नहीं सुनता.
कोई फरिश्ता ही
बचा ले
तो अपनी जमीन पर
आखिरी बार
सिजदा ही कर लूं.
या खुदा करे
तो फिर अपने वतन की
सरजमीं पर खुद को
कुर्बान ही कर दूं.
बेहतरीन वाह...क्या ज़ज्बा है इस रचना में...लाजवाब...
जवाब देंहटाएंनीरज
ये तो हमारी कहानी लिख दी इस कविता में जैसे..बहुत उम्दा!
जवाब देंहटाएंतो अपनी जमीन पर
जवाब देंहटाएंआखिरी बार
सिजदा ही कर लूं.
या खुदा करे
तो फिर अपने वतन की
सरजमीं पर खुद को
कुर्बान ही कर दूं.
गजब कि पंक्तियाँ हैं ...
बहुत सुंदर रचना.... अंतिम पंक्तियों ने मन मोह लिया...
बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसमीर जी,
जवाब देंहटाएंआपकी स्थिति और है जरा उनके बारे में सोचिये जो भुलावे में आकर घर छोड़ कर चल दिए और वहाँ बंधुआ मजदूर बन लिए गए हैं और न वहाँ से आ पा रहे हैं और न जी पा रहे हैं. इस दर्द को वही जानता है जिसके घर वाले इसे जी रहे हैं.
हर प्रवासी के दिल कि आवाज़ लिख दी इस बार तो :)
जवाब देंहटाएंप्रवासियों का छलकता दर्द , बखूबी पिरोया आपने कविता में.
जवाब देंहटाएंप्रवासियों की बेबसी दिल का दर्द -- मार्मिकता से शब्दों मे पिरोया है। अच्छी लगी रचना। शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंप्रवासियों के दर्द को बहुत अच्छी तरह समझ कर उकेरा है
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना......
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