सोमवार, 12 जुलाई 2010

अवशेष ही अवशेष !

बहुत दिनों से
खुले अध्याय का
आज पटाक्षेप हो गया.
सब कुछ ख़त्म
एक लम्बे सफर की दास्ताँ
जो खुद बा खुद लिखी जा रही थी
फिर अचानक
एक आई ऐसी आंधी
कि पन्ने बिखर गए
उनमें अंकित इतिहास भी
धुंआ धुंआ हो गया.
उसमें जन्मे, जिए
किरदारों का भी
नामोनिशां न रहा.
तिनका तिनका जोड़कर
आशियाँ बनाया था
चिंदी चिंदी बिखर गया.
न जाने कहाँ
किस दिशा में
अवशेष चले गए
जो शेष रहे
वे भी तो सम्पूर्ण न थे.
अवशेष ही अवशेष थे.
बस उन्हें बटोरने के लिए
एक हम ही तो शेष थे.

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत भावपूर्ण रचना...सब कुछ गवां दिए जाने का भाव बहुत मार्मिक है....
    नीरज

    जवाब देंहटाएं
  2. वे भी तो सम्पूर्ण न थे.
    अवशेष ही अवशेष थे.
    बस उन्हें बटोरने के लिए
    एक हम ही तो शेष थे.
    ......bahut hi bhawpoorn rachna

    जवाब देंहटाएं
  3. अवशेष के भी अवशेष.....और बस शेष स्वयं को कहा है...बहुत टीस भरी रचना...

    जवाब देंहटाएं
  4. सुंदर भावपूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत आभार.

    जवाब देंहटाएं