सोमवार, 7 जून 2010

कैसी ये ख़ामोशी ?



आजकल खामोश क्यों?
कलम तेरी,
क्या जज्बा संघर्ष का
कुछ डिगने लगा है?
या फिर
अपनी लड़ाई में
बढ़ते कदमों के नीचे
बिछाए गए 
कुछ काँटों की चुभन
डराने लगी है.
कुछ इस तरह 
रखो कदम
चरमरा के पिस जाएँ,
कांटे क्या लोहे की सलाखें भी
जज्बों के आगे
मुड़कर बिछ जायेंगी.
कटाक्ष, लांछन,
हमेशा श्रंगार बने 
जब अपनी तय
सीमायों से परे
किसी नारी ने
कुछ कर दिखाया है
उंगलियाँ उठती रहीं  हैं
आखिर कब तक
उठेंगी
अपनी मंजिल की तरफ
चुपचाप चला चल
जब मिलेगी 
विजय की ध्वजा
ये उंगलियाँ
झुककर
तालियाँ बजायेंगी
कामयाबी के सफर में
सब साथ होते हैं.
संघर्ष की राह 
कठिन तो है लेकिन अजेय नहीं.
मेधा, क्षमता , शक्ति और धैर्य
सब तो तुम में है
विजय पताका भी तुम्हारी ही होगी. 
विजय पताका भी तुम्हारी ही होगी.

9 टिप्‍पणियां:

  1. सकारत्मक सोच लिए ओजपूर्ण कविता.

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  2. बहुत सुन्दर भाव लिए हुए...सकारात्मक सोच दर्शाती खूबसूरत रचना

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  3. सकारात्मक सोच दर्शाती खूबसूरत

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  4. वाह जी, बहुत उम्दा सोच...बेहतरीन रचना!

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