शनिवार, 22 मई 2010

पत्थर बना दिया !



सोचती हूँ अब भी 
न जाने क्यों,
वक़्त के थपेड़ों ने मुझे
पत्थर बना दिया.
थी तो मैं 
समंदर के किनारे की रेत
जिसने रखे कदम 
दिल में समा लिया.
प्यार के अहसास से
इतना सुख दिया
हर आने वाले को
अपना बना लिया.
अब मगर 
बात कुछ और है
बोले बहुत बोल 
ज़माने ने इस तरह
पत्थरों पर भी
कभी दूब उगा करती है.
उन्हें पता कहाँ है
कि पत्थरों के गर्भ में
नदियाँ भी पला करती हैं.
जमीं पर जो है
नदियाँ 
पहाड़ों से
जमी पर गिरा करती हैं.
कोई  बताये उनको
लोग बदल गए हैं
फिर भी ये निर्जीव
पत्थर
इंसान से बेहतर हैं
ये तो नहीं कि
सीने से लगा कर
खंजर चुभा दिया.
देखा किसी तृषित को
पत्थर ने सीना तोड़ कर
ममता औ' स्नेह का 
अविरल सोता बहा दिया.
फर्क  नहीं उसको
चाहे कोई उठाकर
मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारे 
की दीवार पर रखे
या फिर
किसी की कब्र पर सजा दिया.

11 टिप्‍पणियां:

  1. सच है पत्थर पर भी दूब उगा करती है...बहुत सुन्दर बात...खूबसूरत अभिव्यक्ति

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  2. फर्क नहीं उसको
    चाहे कोई उठाकर
    मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारे
    की दीवार पर रखे
    या फिर
    किसी की कब्र पर सजा दिया
    .....Gahri bhavabhivykti...

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  3. .देखा किसी तृषित कोपत्थर ने सीना तोड़ कर
    ममता औ' स्नेह का अविरल सोता बहा दिया.
    फर्क नहीं उसकोचाहे कोई उठाकरमंदिर,
    मस्जिद या गुरुद्वारे की दीवार पर रखेया
    फिरकिसी की कब्र पर सजा दिया
    बहुत ही ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति

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  4. वाह रेखा जी रचना के साथ-साथ चित्र भी उतना ही सुंदर है.

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  5. उम्दा और विचारणीय प्रस्तुती /

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  6. पत्थर
    इंसान से बेहतर हैं
    ये तो नहीं कि
    सीने से लगा कर
    खंजर चुभा दिया.
    क्या बात है!! बहुत सुन्दर रचना

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  7. बहुत सुन्दर, वक़्त के थपेड़े हमें रेत से एक ठोस पत्थर बना देते हैं ! यही तो ज़िन्दगी है !

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  8. पत्थर के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं की पङताल करती सशक्त रचना........बधाई।

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  9. भावना पूर्ण , उम्दा और विचारणीय

    http://madhavrai.blogspot.com/

    http://qsbai.blogspot.com/

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