गुरुवार, 20 मई 2010

प्यासी धरती - प्यासे मन!



बंजर धरती 
दरकन माटी की,
दरका देती है
दिल सैकड़ों के.
पर क्या करते?
गर आंसुओं से 
बुझती प्यास 
हर आँख
इतना रोती औ'
नीर बहा देती, 
प्यास से पपड़ाये 
होंठों की प्यास
शीतल कर देती.
मन में उमड़ते 
विचारों के बादल 
इतना बरसाती
आकाश में उठी निगाहों को 
आशा से भर देती,
धरती की ज्वाला 
निर्मल जल से शांत कर देती.
मन के खिलते पुष्पों की
एक बगिया 
इस धरती के आँचल को 
चुपचाप रंगीनी से भर देती. 
ये धरती फिर लहलहाए 
ऐसा कुछ कर देती.
सूखी सूखी सी आँखों में
जीवन के रंग भर देती.

6 टिप्‍पणियां:

  1. मन और धरती की वेदना को बहुत खूबसूरत शब्दों में उकेरा है....सुन्दर रचना...संवेदनशीलता के साथ...

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  2. banjar dharti ke dard ko swabhawik roop se dikhaya hai Rekha di aapne.........:.

    Kash!! hamari dharti kabhi na banjar hoti.........aur ham hariyali ke beej bo pate..:)

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  3. मन के खिलते पुष्पों की
    एक बगिया
    इस धरती के आँचल को
    चुपचाप रंगीनी से भर देती.
    ये धरती फिर लहलहाए
    ऐसा कुछ कर देती.
    सूखी सूखी सी आँखों में
    जीवन के रंग भर देती.
    कमाल की पंक्तियाँ हैं ये...बहुत ही आशावादी रचना...

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  4. कविता के बारे में रश्मि दी की राय से सहमत हूँ..

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