रविवार, 29 नवंबर 2009

जीव- आत्मा-परमात्मा !

क्यों जीव ही जीव का
हत्यारा है?
कभी ईश्वर, खुदा या पैगम्बर
का नाम लेकर
उन जीवों को हलाल कर दिया।
कभी आड़ लेकर धर्म की
नर संहार कर दिया।
अपने बच्चों के शरीर पर
एक बैठा हुआ कीट भी
सहन नहीं होता।
क्यों?
उसको काट लेगा
तो कष्ट होगा।
किंतु
किस लिए
क़ुरबानी के नाम पर
सैकड़ों जीवों को जीवन से
वंचित किए जाते हैं हम।
रिक्शे , टेम्पो और ट्रकों में
मिमियाते हुए
वे भी जानते है
कि आज उनका आखिरी दिन है।
उन आँखों की बेबसी और पीड़ा
पढ़ी क्या किसी ने?
वे बेजुबान असक्त है
इस लिए हम
मारने के लिए
तैयार है।
क्योंकि मानव ही
इस दुनियाँ में सबसे सशक्त है।
कहाँ दया और करुणा
छिप जाती है?
जीव कोई आत्मा बिना कहाँ?
फिर उसकी आत्मा
क्या आत्मा नहीं होती?
सब ने कहा है -
आत्मा ही परमात्मा है।
फिर हम परमात्मा को ही...............
हम तो खुश करने चले हैं
उसी देव को
किंतु
इस पाप से क्या मुक्ति
मिल सकेगी?
खूंटे से बांधकर
सर कलम कर दिया।
एक चीख निकल गई
और बेध गई।
किंतु ये क्रम
कभी बंद नहीं होगा।
जीव - जीव में अन्तर है।
वे बोल नहीं सकते
प्रतिरोध नहीं कर सकते
पर प्रतिरोध करने वालों
के भी सर कलम कर दिए जाते हैं।
हम मानव नहीं दानव हैं
जीव, आत्मा, परमात्मा
सब किताबों की बातें हैं।
किसने देखा है ?
आत्मा और परमात्मा को.
वह तो रहता ही है
अमीरों की तिजोरियों में
और कंजूसों की थैलियों में।
सशक्तों की गोलियों में.

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