रविवार, 29 जनवरी 2023

खोजते हैं!

 कितना अजीब सोचते हैं ये दुनिया वाले,

परिंदों को बेघर कर आशियाना खोजते हैं।


बसा कर आसमान तक मंजिलों का जाल,

अब चाँद-तारों भरा आसमान खोजते हैं।


उजाड़ कर अपने ही  बाग गाँवों के ,

शहर की धूप में छाँव खोजते हैं।


अपने  खेतों की माटी में विष बो कर,

अब शहरों में छतों पर खेत खोजते हैं।


कैसे नादान बनते हैं ये सयाने लोग ,

गाँव छोड़ कर शहरों  में अपनत्व खोजते हैं।

 

1 टिप्पणी:

  1. यह दुनिया पीतल की...ऐसी ही है यह दुनिया, पेड़ काटकर पार्किंग के लिए लोग पेड़ ही ढूंढते हैं।

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