ये है ऐसा रक्षाबंधन
आँसुओं से भरी आँखें
हाथ सजी थाली लिए
जलाये दीप
रखी उसमें राखियाँ
वो मीठी सी प्यार पगी
मिठाई और रोली चावल
सब उदास से सजे है,
बेरौनक
मन अपना भी है आँसू आँसू,
कहाँ होंगी वे कलाइयाँ ,
जिनके रहते हम लड़े थे, भिड़े थे या बचपन से शिकायतों का पिटारा लिए
माँ के सामने रखें थे।
जब आता रक्षाबंधन बचपन में
मिले रुपयों को सहेज कर रखा।
वह वो कलाई थी ,
जिसमें सिर्फ हम चार की नहीं बल्कि
बँधती थी ग्यारह राखियाँ
पूरा भरा हाथ होता था ।
कितनी सारी बहनें इंतजार करती थी ,
और आज सबसे मुँह मोड़ कर
पता नहीं कहाँ खो गये?
ये दीपक इंतजार में थक कर सो जायेगा,
ये फूल भी मुरझा जायेंगे,
बस रोली अक्षत और राखी
शेष रहेंगे ,
या सच कहूँ तो
उस माला चढ़ी हुई तस्वीर पर ही बाँध दूँगी ,
भले चले जाओ तुम दोनों
हम पीछा नहीं छोड़ेंगे,
भले भरी आँखों से
गिरते आँसुओं से धो लूँ अपना चेहरा
लेकिन बाँध कर ही मानूँगी
महसूस करूँगी तुम दोनों को
उसी रूप में जैसी हमेशा करती रही थी ।
भले पास न हो,
फिर भी राखी का नेग तो लेती थी मिलने पर,
अब भी आकर आत्मा से आशीष दे जाना,
कहते है न आत्मा परमात्मा होती है ।
बस संतोष कर लूँगी कि अगले जन्म फिर बनना भाई,
और मैं फिर साक्षात बाधूँगी ये रक्षा सूत्र।
-- रेखा श्रीवास्तव
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