घर की
इमारत तो बनेगी
तभी
जब
नींव के पत्थर
संस्कारों के गारे से
जोड़ जोड़ कर
उसे पुख्ता करने की बात
हमारे जेहन में होगी .
गर हाथ हमारे
कांपने लगे
औरों के डर से
आकार ही न दे पाए,
तो वो फिर टूटकर
बिखर जाने का
एक अनदेखा भय
मन में सदा ही
करवटें बदलता रहेगा .
पहले हम दृढ हों ,
मन से , विचारों से
ताकि बिखरती सन्तति को
अपने दृढ विचारों
और दृढ संकल्पों का
वह स्वरूप दिखा सकें
जिसकी जरूरत
आज सम्पूर्ण
मानव जाति को है.
उनका भटकाव
उनके बहकते कदम
उनकी नहीं
हमारी कमी को दर्शाते हैं
कुछ कहीं तो है ऐसा
हम उन्हें समझ नहीं पाए
या फिर उन्हें समझा नहीं पाए .
सदियों से
बड़ों ने ही दिशा दी है
फिर क्यों ?
हम खुद दिग्भ्रमित से
उनको दिशा नहीं दे पाए ,
कहीं हम भी तो
जाने अनजाने में
दिग्भ्रष्ट तो नहीं हो गए .
उसका प्रतिफल
हम देख रहे हों .
अगर ऐसा ही है
तो फिर थामो कदम अपने
अभी देर नहीं हुई ,
जो चलना सीख रहे हैं
उन्हें संस्कारों की
डोर थमा दें और फिर
अपने आदर्शों की तरह
इस समाज को नवरूप दें .
इमारत तो बनेगी
तभी
जब
नींव के पत्थर
संस्कारों के गारे से
जोड़ जोड़ कर
उसे पुख्ता करने की बात
हमारे जेहन में होगी .
गर हाथ हमारे
कांपने लगे
औरों के डर से
आकार ही न दे पाए,
तो वो फिर टूटकर
बिखर जाने का
एक अनदेखा भय
मन में सदा ही
करवटें बदलता रहेगा .
पहले हम दृढ हों ,
मन से , विचारों से
ताकि बिखरती सन्तति को
अपने दृढ विचारों
और दृढ संकल्पों का
वह स्वरूप दिखा सकें
जिसकी जरूरत
आज सम्पूर्ण
मानव जाति को है.
उनका भटकाव
उनके बहकते कदम
उनकी नहीं
हमारी कमी को दर्शाते हैं
कुछ कहीं तो है ऐसा
हम उन्हें समझ नहीं पाए
या फिर उन्हें समझा नहीं पाए .
सदियों से
बड़ों ने ही दिशा दी है
फिर क्यों ?
हम खुद दिग्भ्रमित से
उनको दिशा नहीं दे पाए ,
कहीं हम भी तो
जाने अनजाने में
दिग्भ्रष्ट तो नहीं हो गए .
उसका प्रतिफल
हम देख रहे हों .
अगर ऐसा ही है
तो फिर थामो कदम अपने
अभी देर नहीं हुई ,
जो चलना सीख रहे हैं
उन्हें संस्कारों की
डोर थमा दें और फिर
अपने आदर्शों की तरह
इस समाज को नवरूप दें .