गम टुकड़ों में जिया ,
सब अपना न था
फिर भी
लिख डाली कुछ पंक्तियां
बंद कर दी कलम .
फिर कोई गम मिला
अपना वो भी न था ,
बाँट लिया आगे बढ़ कर
और जोड़ लिया
अपनी थाती में
टुकड़े टुकडे गम मिले
कुछ अपने थे, कुछ औरों के ,
अपना बना लिया
सहेज दिया
लिख डाली पूरी दास्ताँ .
पढ़ी लोगों ने
सवाल उठाये
लगता तो नहीं
इतने गम मिले होंगे
फिर ये गम की स्याही में
सनी कलम
खून में डूबी हुई
दास्ताँ कैसे लिख गयी?
इसका उत्तर नहीं था
मेरे पास
जिस को भी सीने लगाया
उसकी दास्ताँ उतर गयी गहरे में
फिर आहिस्ता आहिस्ता वो
ग़मों की एक कहानी बन गयी।
अपने अपने हिस्से के गम
सबने पहचान लिए
जो मैंने बांटे थे
दूसरी के जबान से निकले तो
उनकी गीली आँखें
शुक्रिया कह गयीं
क्योंकि
उनके दर्द को जुबान
मिल चुकी थे।
जो चाह कर भी
वे न कह सके
वो हवा में तैर कर उन्हें
उस दर्द से आजाद कर चुकी थी।
क्या कहूँ इस प्रस्तुति पर ……………ऐसे कम ही लोग होते हैं जो दूसरों के गमों को अपना बना लेते हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया!
जवाब देंहटाएंअजीब दास्तां है ये...।
दर्द को अगर ज़ुबान मिल जाए तो दर्द हलका हो जाता है।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया अभिव्यक्ति!!
जवाब देंहटाएंदूसरों के गम अपने बना लेना भी सब के बस की बात नहीं। आप ये कर सकीं इसके लिए नमन
जवाब देंहटाएंप्रिय रेखा जी "गम की दास्ताँ !" बेहद पसंद आया -- " बेहद भावपूर्ण रचना है | यहाँ पधारें मेरी नई प्रस्तुति "क्या यही प्यार है ? " आपके इन्तेजार में www.akashsingh307.blogspot.com
जवाब देंहटाएंदूसरे के गम को अपनाना और उन्हें शब्दों में ढालना मुश्किल होता है ... सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंदूसरे के दर्द कों जीना आसान नहीं होता ... विष पीने वाला ही शिव हो पाता है ...
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
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