रविवार, 26 जून 2011

ख़ामोशी से ज्वालामुखी तक !

खामोश निगाहें,
खामोश जुबां,
धुंधली रोशनी या बेजुबां
नहीं होती हैं
सब्र कि हद तक
तो पीती हैं -
तिरस्कार, जलालत और बेरुखी का जहर,
जाने कौन से लम्हे में
इस सब्र के बाँध में
दरार जाये
फिर वह ज्वालामुखी
अगर फट ही गयी तो,
कोई रक्षा कवच
तुम्हें बचा नहीं पायेगा
उसकी राख और धूल भी
इतनी घातक होगी कि
सांस लेना तो दूर
देखने देगी '
जीने देगी
और तुम जुबान से
आग उगलने वालो
उस खामोश ज्वालामुखी में
खाक हो जाओगे,
क्योंकि ये सच है
किसी मासूम की आह से
सोने की लंका भी
खाक हो जाती है
तब कोई बाहुबली रावण
उसको बचा नहीं पता
इस लिए सावधान
किसी के अंतर की ज्वालामुखी को
फटने के लिए इंतजाम करो
उसके सब्र को
टूटने का इन्तजार करो

गुरुवार, 23 जून 2011

माटी और खम्भे !


घर कभी
माटी के हुआ करते
थे,
माटी के ऊपर माटी की परतें
सब मिलकर एक हो जाती थीं।

उनमें बसने वाले लोग,
उनमें बसता था प्यार,
वे एक ही रहते थे
क्योंकि माटी का एक ही रूप होता है।
अगर तोडा तो पूरी दीवार ढह जाती थी ,

क्योंकि
उसमें और कुछ होता ही नहीं था।
तब मंजिलें नहीं होती थी,
तभी तो सब
एक ही जमीन पर
एक ही सतह पर
एक साथ जिया करते थे।
फिर मंजिले बनने लगी

जब तक दीवारों पर छत रही
शुक्र था
क्योंकि वे दीवारें तो एक थीं।
ब खम्भों पर
खड़ी बहुमंजिली इमारतें
उनका कोई अस्तित्व नहीं

कोई छत किसी की नहीं
सिर्फ फर्श अपना है।
ऊँचाइयों पर चढ़ने वाले
किसी के भी नहीं रहे
सिर्फ 'मैं' और 'मेरा'
बचा रह गया है।
मकान खरीद लेते हैं,
कल बेच देते हैं
लेकिन घर कभी नहीं बन पाता,
सिर्फ सोने की जगह है। ( चित्र गूगल के साभार )
जहाँ बच्चे , माँ -बाप
पति-पत्नी एक दूसरे के सानिंध्य को
तरसते रहते हैं।
अगर यही हमारी प्रगति है
तो हम इंसान से
मशीन बन चुके हैं.
और मशीनों में
संवेदनाएं नहीं हुआ करती।
सोचा वापस झाँक लूं
उन माटी के घरों में
जहाँ पुरखे रहा करते थे।
पर यह क्या?
पुरखों के साथ ही
माटी का चलन ख़त्म हुआ
क्योंकि अब
यहाँ भी
खम्भों के बीच जुड़ी दीवारों का
चलन आ गया है।

मंगलवार, 7 जून 2011

गैर जिम्मेदार !

मंत्रीजी से मिलने
चार बंगले वाले पहुंचे
लगे सवाल करने
मेन रोड कब बनेगी?
गाड़ी फँस जाती है गड्ढों में
धूल के गुबारों से
निकलना मुश्किल है,
गलियां जो जुड़ रही है उनसे
सब पक्की हो चुकी है
ये क्या तमाशा है?
मंत्रीजी ने
पान मसाले को निगलते हुए
अंगुली उठाकर
उनसे कहा -
आप बड़े बंगले वाले
मेन रोड पर - बंगले हैं,
पूरी सड़क पड़ी है
आधे में उजड़ा पार्क
और
सामुदायिक केंद्र बना है
वोट क्या खाक मिलेंगे?
गलियों में लोग
एक घर में
१०-१० रहते हैं,
उन्हें सुविधा देंगे
नाम लेंगे,
बदले में मेरी सीट पक्की
बंगले वाले तो वोट भी नहीं देते
गालियाँ देते हैं
सो मेन रोड नहीं
उसके किनारे लगे
पत्थर देखिये
जिनपर लिखा मेरा नाम
तुम्हें गैर जिम्मेदार ठहरा रहा है

सोमवार, 6 जून 2011

लोकतंत्र की हत्या!

हम कहते हैं
देश में लोकतंत्र की
हत्या हो चुकी है,
क्यों हो?
सत्ता का मद
बहुत गहरा होता है
उसके लिए कुछ भी करेंगे,
जहाँ चुनावी सरगर्मी में
लोक के भूखे पेट की आग पर
राजनीति का तवा चढ़ा कर
वोटों की रोटियां सेकी जाती हैं
पेट तो सिर्फ भूख जानता है,
वे रोटियां कैसे सिकीं
इससे नहीं मतलब
मतलब तो इससे है कि
वे रोटियां मिली
और पेट की अग्नि बुझी,
फिर जिसने जो कहा
कर दिया
फिर क्या लोकतंत्र और क्या राजतन्त्र
उन्हें रोटियां चाहिए
रोटियां देने वाले शैतान भी
उन्हें देवता नजर आते हैं,
कल नहीं आज की
उदराग्नि बुझाने वाले
भगवान समझे जाते हैं,
भले भी वे कुत्ते समझ कर
टुकड़े डाल दें
और उनके कल पर काबिज हो जाएँ
देखा नहीं
भूख से बिलबिलाते जन को
पैसे दिखाई देते हैं
चाहे जुलूस में ले जाएँ
या फिर
जिंदाबाद ही तो कहना है
फिर पेट भर खाने की
तृप्ति उन्हें बिकाऊ बना देती है
अब लोक कहाँ और तंत्र कहाँ?

गुरुवार, 2 जून 2011

आभार करो !

विनम्र हो इतना
कि जिसमें शेष रहे
आत्मसम्मान तुम्हारा
दीनता का भाव धरो,
झुको इतना कि
गरिमा तुम्हारी बनी रहे,
गर वे करें कोशिश
बिछाने की
टूटने की दशा में
मान लो वे इस काबिल नहीं
भाषा उन्हें
समझ आती है अपशब्दों की
अपशब्द सीखो नहीं
बस उस रास्ते को छोड़ दो
मानव की कई श्रेणियां होती हैं
तुम जहाँ हो
वहीं से चल पड़ो
वे रास्ते कहीं जाते नहीं
पतन के आगे
कोई रास्ता होता नहीं,
गर्त में गिरो तो
कोई थाह होती नहीं
मन क्रम वचन से
धीर धर कर
तुम आचरण करो
आगे देखो पीछे
अपने रास्ते तुम खुद चुनो
मंजिल तुम्हें मिल जाएगी,
इस पथ का राही कभी
भटक कर विचलित होता नहीं
कुछ मिले मिले
हर लेकर द्वार पर
संतोष खड़ा मिलेगा
मूँद कर आँखें स्वीकार करो
ईश को नमन कर आभार करो