शनिवार, 25 सितंबर 2010

अफसोस !

बहुत अपना समझ कर उन्हें ,
मैंने दिल  खोल कर अपना धर  दिया.

जो आये थे कभी हमदर्द बनाकर,
बाहर जाकर उन्होंने ही बदनाम कर दिया.

किसको समझें इस जहाँ में अपना  हम
लिखा तो नहीं रहता है चेहरे पे किसी के.

जिसके लिए बगावत की ज़माने से,
उसी ने हमें आज बागी करार कर दिया.

अपनों के  चेहरे की   परत दर परत,
खुलने लगी  कुछ इस तरह से मेरे सामने.

छुपाने की  कोशिश कर ली  बहुत मगर
खुदा ने ही उसे कुछ इस तरह बेनकाब  कर दिया. 

7 टिप्‍पणियां:

  1. किसको समझें इस जहाँ में अपना हम
    लिखा तो नहीं रहता है चेहरे पे किसी के.
    yun hi zindagi prashn bant jati hai

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  2. अपनों के चेहरे की परत दर परत, खुलने लगी कुछ इस तरह से मेरे सामने.
    छुपाने की कोशिश कर ली बहुत मगर खुदा ने ही उसे कुछ इस तरह बेनकाब कर दिया.

    क्या बात कही है..बहुत खूब...एकदम कड़वा सच..बड़ी अच्छी लगी ये रचना.

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  3. अच्छी लगी आपकी कवितायें - सुंदर, सटीक और सधी हुई।

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  4. वाह , सच को जुबान मिल गयी, अच्छे लगे ये उदगार.

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  5. छुपाने की कोशिश कर ली बहुत मगर
    खुदा ने ही उसे कुछ इस तरह बेनकाब कर दिया.

    -वाह, बहुत शानदार.

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