हाँ , मैं मानव हूँ,
जुड़ा रहा जीवन भर
मानवीय मूल्यों से।
कभी बंधा नहीं,
अपने और परायों की सीमा में
जो हाथ बढ़े
बढ़ कर थाम लिया,
बढ़ कर थाम लिया,
शक्ति रही तो
कष्ट से उबार लिया।
बहुत मिले
वक्त के मारे हुए,
अपनों से टूटे हुए,
जो दे सका
मन से, धन से या संवेदनाओं से प्रश्रय
उबार कर लाया भी
लेकिन पार लगते ही
सब किनारे हो लिए.
फिर चल पड़े कदम
और गिरे , टूटे हुओं की तरफ
पर तब तक
ढोते ढोते
अपने कदम लड़खड़ाने लगे
बहुतों का बोझ ढोते
कंधे झुक गए थे,
हौंसले भी हो रहे थे पस्त
एक दिन जरूरत थी
तो कोई नहीं था.
अपने आँख घुमा कर
दूसरी ओर चल दिए,
परायों की तो कहना क्या?
आँखें भर आयीं
मानवता की कीमत
क्या इस तरह से चुकाई जाती है?
तभी
हाथ कंधें पर धरा
सिर उठा कर देखा
मेरी बेटी खड़ी थी
पापा मैं हूँ न,
चिंता किस बात की?
आपकी ही बेटी हूँ
आपकी अलख
आगे भी जलती रहेगी.
फिर कोई और आयेगा
इस मशाल को थामने
ये जब तक धरती है
ऐसे ही चलती रहेगी
कभी मानवता न मिटेगी।
manviya sanvedna ko pradarshit karti ek utkrisht rachna.........di!!
जवाब देंहटाएंmanviya sanvedna ko pradarshit karti ek utkrisht rachna.........di!!
जवाब देंहटाएं"पापा मैं हूँ न,चिंता किस बात की?आपकी ही बेटी हूँआपकी अलख आगे भी जलती रहेगी.फिर कोई और आयेगाइस मशाल को थामने ये जब तक धरती हैऐसे ही चलती रहेगीकभी मानवता न मिटेगी"
जवाब देंहटाएंयही तो जीवन है - बहुत सुंदर रचना
बहुत शानदार और अच्छा लगा....कविता बहुत सुंदर है.
जवाब देंहटाएंप्रणाम के साथ शुभकामनाएं....
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